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________________ [धर्मवीर महावीर और कर्मवीर कृष्ण : ६३ समाजनियामक या लोकसंग्राहिका संस्कृति पहले से ही मौजूद थी, वह चालू रही और अपना काम करती चली गई। जब-जब किसी ने अहिंसा के सिद्धांत पर अत्यन्त जोर दिया तब-तब इस लोकसंग्रह वाली संस्कृति ने उसे प्रायः अपना तो लिया, किन्तु उसकी आत्यन्तिकता के कारण उसका विरोध जारी रखा । इस प्रकार इस संस्कृति का अनुयायी-वर्ग यह समझने और दूसरों को समझाने लगा मानो वह प्रारम्भ से ही जुदा था। जैन-संस्कृति में अहिंसा का जो स्थान है, वही स्थान वैदिक-संस्कृति में भी है । भेद है तो इतना ही कि वैदिक-संस्कृति अहिंसा के सिद्धान्त को व्यक्तिगत रूप से पूर्ण आध्यात्मिकता का साधन मानकर उसका उपयोग व्यक्तिगत ही प्रतिपादन करती है और समष्टि की दृष्टि से अहिंसा सिद्धान्त को सीमित कर देती है। इस सिद्धान्त को स्वीकार करके भी समष्टि में जीवन-व्यवहार तथा आपत्ति के प्रसंगों में हिंसा को अपवादरूप न मानकर अनिवार्य उत्सर्गरूप मानती है एवं वर्णन करती है। यही कारण है कि वैदिक-साहित्य में जहाँ हम उपनिषद् तथा योगदर्शन जैसे अत्यन्त तप और अहिंसा के समर्थक ग्रंथ देखते हैं वहाँ साथ ही साथ 'शाठयं' कुर्यात् शठं प्रति' की भावना के समर्थक तथा जीवन-व्यवहार किस प्रकार चलाना चाहिये, यह बताने वाले पौराणिक एवं स्मृति-ग्रंथों को भी प्रतिष्ठाप्राप्त देखते हैं। अहिंसासंस्कृति की उपासना करनेवाला एक जुदा वर्ग स्थापित हो गया और समाज के रूप में उसका संगठन भी हो गया, पर कुछ अंशों में हिंसात्मक प्रवृत्ति के बिना जीवित रहना तथा अपना तन्त्र चलाना तो उसके लिये भी सम्भव न था। क्योंकि किसी भी छोटे या बड़े समग्र समाज में पूर्ण अहिंसा का पालन होना असम्भव है। इसी से जन-समाज के इतिहास में भी हमें प्रवृत्ति के विधान तथा विशेष प्रसंग उपस्थित होने पर त्यागी भिक्षु के हाथ से हुये हिंसाप्रधान युद्ध देखने को मिलते हैं। इतना सब कुछ होने पर भी जैनसंस्कृति का वैदिक-संस्कृति से भिन्न स्वरूप स्थिर ही रहा है और वह यह कि जैन-संस्कृति प्रत्येक प्रकार की व्यक्तिगत या समष्टिगत हिंसा को निर्बलता का चिह्न मानती है और इसलिए इस प्रकार की प्रवृत्ति को अन्त में वह प्रायश्चित्त के योग्य समझती है । वैदिकसंस्कृति ऐसा नहीं मानती। व्यक्तिगत रूप से अहिंसा-तत्त्व के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001054
Book TitleChar Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Shobhachad Bharilla, Bhavarmal Singhi, Sagarmal Jain, Dalsukh Malvania
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1989
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, History, & E000
File Size8 MB
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