SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६२ : चार तीर्थंकर] अधर्म या अन्याय का प्रतिकार करना और धर्म या न्याय की प्रतिष्ठा करना, यह तो प्रत्येक महापुरुष का लक्षण होता ही है । इसके बिना कोई महापुरुष नहीं बन सकता । महान् पुरुष के रूप में उसकी पूजा भी नहीं हो सकती। फिर भी उसकी पद्धति में भेद होता है। एक महान पुरुष किसी भी प्रकार के, किसी भी अन्याय या अधर्म को अपनी सारी शक्ति लगाकर बुद्धिपूर्वक तथा उदारतापूर्वक सहन करके उस अधर्म या अन्याय को करने वाले व्यक्ति का अन्तःकरण अपने तप द्वारा पलटकर उसमें धर्म एवं न्याय के राज्य की स्थापना करने का प्रयत्न करता है । दूसरे महापुरुष को व्यक्तिगत रूप से धर्म-स्थापन की यह पद्धति यदि इष्ट होती है, तो भी वह लोक-समूह की दृष्टि से इस पद्धति को विशेष फलप्रद न समझकर किसी और ही पद्धति को स्वीकार करता है। वह अन्यायी या अधर्मी का अन्तःकरण समता या सहिष्णुता के द्वारा नहीं पलटता। वह तो "विष की दवा विष" इस नीति को स्वीकार कर अथवा 'शठ के प्रति शठ' होनेवाली नीति को स्वीकार कर उस अन्यायी या अधर्मी को मटियामेट करके ही लोक में धर्म और नीति की स्थापना करने पर विश्वास करता है। विचारसरणी का यह भेद हमें इस युग में भी स्पष्ट रूप से गाँधीजी तथा लोकमान्य की विचार एवं कार्यशैली को देख सकते हैं। किसी प्रकार की गलतफहमी न हो, इस उद्देश्य से यहाँ दोनों संस्कृतियों के सम्बन्ध में कुछ विशेष जता देना उचित है । कोई यह न समझ ले कि इन दोनों संस्कृतियों में प्रारम्भ से ही मौलिक भेद है और दोनों एक दूसरी से अलग रहकर ही पली-पुसी हैं। सच्चाई तो यह है कि एक अखण्ड आर्य-संस्कृति के दोनों अंश प्राचीन हैं। अहिंसा या आध्यात्मिक संस्कृति का विकास होते-होते एक ऐसा समय आया जब कुछ पुरुषों ने उसे अपने जीवन में पराकाष्ठा तक पहुंचा दिया। इस कारण इन महापुरुषों के सिद्धान्त और जीवनमहिमा की ओर अमुक लोक-समूह झुका जो धीरे-धीरे एक समाज के रूप में संगठित हो गया। सम्प्रदाय की भावना तथा अन्य कई कारणों से यह अहिंसक समाज अपने आपको ऐसा समझने लगा मानो वह एकदम अलग ही है ! दूसरी ओर सामान्य प्रजा में जो - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001054
Book TitleChar Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Shobhachad Bharilla, Bhavarmal Singhi, Sagarmal Jain, Dalsukh Malvania
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1989
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, History, & E000
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy