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६६ : धर्मवीर महावीर और कर्मवीर कृष्ण ]
साहित्य में महावीर तथा कृष्ण की उल्लिखित घटनायें संक्षेप म या विस्तार से, समान रूप में या असमान रूप में चित्रित की गई नजर आती हैं, उन्हें देखते हुए दूसरे पक्ष की संभावना को छोड़कर तीसरे पक्ष की निश्चितता की ओर हमारा ध्यान आकर्षित होता है । हमें निश्चित रूप से प्रतीत होने लगता है कि मूल में चाहे जो हो, परन्तु इस समय के उपलब्ध साहित्य में जो दोनों वर्णन पाये जाते हैं उनमें से एक दूसरे पर अवश्य अवलंबित है या एक का दूसरे पर प्रभाव पड़ा है; फिर भले ही वह पूर्ण रूप में न हो, कुछ अंशों में ही हो ।
( ४ ) ऐसी अवस्था म अब चौथे पक्ष के विषय में विचार करना शेष रहता है । वैदिक विद्वानों ने जैन वर्णन को अपनाकर अपने ढंग से अपने साहित्य में उसे स्थान दिया है या जैन-लेखकों ने वैदिक पौराणिक वर्णन को अपनाकर अपने ढंग से अपने ग्रंथों में स्थान दिया है ? बस, यही विचारणीय प्रश्न है ।
जैन - संस्कृति की आत्मा क्या है और मूल जैन ग्रंथकारों की विचारधारा कैसी होनी चाहिये ? इन दो दृष्टियों से यदि विचार किया जाय तो यह कहे बिना नहीं रहा जा सकता कि जैन साहित्य का उल्लिखित वर्णन पौराणिक वर्णन पर अवलम्बित । पूर्ण त्याग, अहिंसा और वीतरागत का आदर्श, यह जैन-संस्कृति की आत्मा है और मूल जैन ग्रंथकारों का मानस इसी आदर्श के अनुसार गढ़ा होना चाहिए । यदि उनका मानस इसी आदर्श अनुसार हुआ हो तभी जैन-संस्कृति के साथ उसका मेल बैठ सकता है। जैनसंस्कृति में वहमों, चमत्कारों, कल्पित आडम्बरों तथा काल्पनिक आकर्षणों को जरा भी स्थान नहीं है । जितने अंश में इस प्रकार की कृत्रिम और बाहरी बातों का प्रवेश होता है, उतने ही अंशों में जैन - संस्कृति का आदर्श विकृत एवं विनष्ट होता है । यदि यह सच है तो आचार्य समन्तभद्र के शब्दों में, अंध श्रद्धालु भक्तों की अप्रीति को अंगीकार करके और उनकी परवाह न करते हुए यह स्पष्ट कर देना उचित है कि भगवान् महावीर की प्रतिष्ठा न तो इन घटनाओं में है और न बाल-कल्पना जैसे दिखाई देनेवाले वर्णनों में ही । कारण स्पष्ट है । इस प्रकार की दैवी घटनाएँ और अद्भुत
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