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३६ : चार तीर्थंकर ]
भगवान् महावीर से दीक्षा भी अंगीकार कर ली थी । श्वेताम्बरों की धारणा के अनुसार महावीर ने विवाह किया था, उनके एक ही पत्नी थी और उनका नाम था यशोदा । इनके सिर्फ एक ही कन्या होने का उल्लेख मिलता है ।
ज्ञात क्षत्रिय सिद्धार्थ की राजकीय सत्ता साधारण ही होगी, परन्तु वैभव और कुलीनता ऊँचे दर्जे की होनी चाहिए। क्योंकि उसके बिना वैशाली के अधिपति चेटक की बहिन के साथ वैवाहिक सम्बन्ध होना सम्भव नही था ।
गृह-जीवन
वर्धमान का बाल्यकाल बहुतांश में क्रीड़ाओं में व्यतीत होता है । परन्तु जब वह अपनी उम्र में आते हैं और विवाहकाल प्राप्त होता है तब वह वैवाहिक जीवन की ओर अरुचि प्रकट करते हैं । इससे तथा भावी तीव्र वैराग्यमय जीवन से यह स्पष्ट दिखलाई देता है कि उनके हृदय में त्याग के बीज जन्मसिद्ध थे । उनके माता-पिता भगवान् पार्श्वनाथ की शिष्यपरम्परा के अनुयायी थे । यह परम्परा निर्ग्रन्थ के नाम से प्रसिद्ध थी और साधारण तौर पर इस परम्परा में त्याग और तप की भावना प्रबल थी । भगवान् का अपने कुलधर्म के परिचय में आना और उस धर्म के आदर्शों का उसके सुसंस्कृत मन को आकर्षित करना सर्वथा सम्भव है । एक ओर जन्मसिद्ध वैराग्य के बीज और दूसरी ओर कुलधर्म के त्याग और तपस्या के आदर्शों का प्रभाव; इन दोनों कारणों से योग्य अवस्था को प्राप्त होते ही वर्धमान ने अपने जीवन का कुछ तो ध्येय निश्चित किया ही होगा और वह ध्येय भो कोन सा ? 'धार्मिक जीवन' | इस कारण यदि विवाह की ओर अरुचि हुई हो तो वह साहजिक है । फिर भी जब माता-पिता विवाह के लिए बहुत आग्रह करते हैं, तब वर्धमान अपना निश्चय शिथिल कर देते हैं और केवल माता-पिता के चित्त को सन्तोष देने के लिये वैवाहिक सम्बन्ध को स्वीकार कर लेते हैं । इस घटना से तथा बड़े भाई को प्रसन्न रखने के लिये गृहवास की अवधि बढ़ा देने की घटना से वर्धमान के स्वभाव के दो तत्व स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं । एक तो बड़े-बूढ़ों के प्रति
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