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[ भगवान् ऋषभदेव और उनका परिवार : १७
- आर्य जाति का आदर्श माना जाता रहा है और वह समस्त मानवजाति का विशुद्ध आदर्श बनने की योग्यता भी रखता है । भारत के प्रवृत्तिधर्म में विकृत निवृत्तिधर्म को छाप
ऋषभ के बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र भरत के जीवन की तरफ हम गौर करें। उनके सारे जीवन को न लेकर खास बातों की तरफ ही दृष्टिपात करें । ऐसे तो भरत का ऋषभ के पुत्र के रूप में जैन परंपरा में जो वर्णन किया गया है उसी तरह ब्राह्मण-परंपरा में भी मिलता है । अलबत्ता भरत के जीवन का चित्रण दोनों परंपराओं ने अपनेअपने दृष्टिबिन्दु के अनुसार अलग-अलग रीति से ही किया है । यहाँ हम जैन परंपरा के वर्णन के अनुसार ही भरत - जीवन की घटनाओं पर विचार करेंगे |
दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परंपराओं के अनुसार भरत का सारा जीवन उनके पिता से मिलो हुई विरासत के माफिक प्रवृत्तिधर्म में ओतप्रोत , इस विषय में तो शंका है ही नहीं । भरत वयः प्राप्त होने पर राज्य करता है, स्त्रियों के साथ गृह - जीवन बिताता है, प्रजापालन में धर्मपरायणता दिखाता है और अन्त में पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त करता है । यही स्पष्ट रूप से स्वाभाविक प्रवृत्तिधर्म है, परन्तु इसमें कहीं-कहीं चरित्रलेखकों के समय के विकृत निवृत्तिधर्म के रंग भी चढ़ गये हैं ।
हेमचन्द्र भरत के द्वारा आर्य-वेदों की रचना कराते हैं और ब्राह्मण-वर्ग की स्थापना कराते हैं और ब्राह्मण के कुलकर्म कराते हैं । जिनसेन के कथनानुसार भरत को ब्राह्मण वर्ण की स्थापना करने के बाद उसके गुणदोषों के बारे में शंका होती है और उस शंका का निवारण करने के लिए वह अपने पिता ऋषभ तीर्थकर से प्रश्न करता है । भगवान् भरत को ब्राह्मण वर्ग से होने वाली भावी खराबियों का वर्णन सुनाते हैं और आखिर में आश्वासन देते हुए कहते हैं कि जो हुआ सो हुआ, इससे अमुक लाभ भी हुआ है, इत्यादि । जिनसेन का भरत के स्वाभाविक जीवन को संकुचित
१. भरतोऽयं समाहूय
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श्रावकानभ्यधादिदम् ।
गृहे मदीये भोक्तव्यं युष्माभिः प्रतिवासरम् ॥ २२७॥
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