SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ चार तीर्थंकर : १६ से कहा कि ज्ञानी होने से, सब कुछ जानते हुये भी, भगवान् ने सावद्य कर्म कर्त्तव्य समझकर किये । हेमचन्द्र का यह समर्थन एक तरफ तो प्राचीन जैनरूढ़ि की दिशा भूल सूचित करता है और दूसरी तरफ हमलोगों को नया स्वरूप निर्माण करने का प्रकाश देता है । सचमुच जो ज्ञानी हैं वे तो दोष का यथार्थ स्वरूप समझ ही लेते हैं और इसीलिए बाह्य रूप से अनेक लाभ दिखाई देने पर भी वे दोषम प्रवृत्ति में नहीं पड़ते । इसलिए अगर सांसारिक जीवनोपयोगी प्रवृत्ति भी एकान्त दोषवाली ही हो तो ज्ञानी के लिये उसका त्याग ही धर्म बन जाता है । लेकिन अगर इस प्रवृत्ति का विष अनासक्त भाव को लेकर दूर हो एवं अनासक्त दृष्टि से यह प्रवृत्ति भी कर्त्तव्य सिद्ध होती हो तो आजकल के जैन समाज को अपने संस्कारों में इस दृष्टि को दाखिल करके सुधार करना ही चाहिये । इसके सिवाय जैन समाज के लिये दूसरा व्यावहारिक और शास्त्रीय मार्ग है ही नहीं । हमारे देश में शिक्षित और अशिक्षित दोनों वर्गों में एक प्रकार की पंगुता है । शिक्षित वर्ग खूब शिक्षित होने पर भी अशिक्षित वर्ग से भी ज्यादा पंगु है; क्योंकि उन्होंने कर्मेन्द्रियों को काम में लाने को लघुता समझने का पाप किया है । कर्मेन्द्रियों की तालीम होते हुए भी अशिक्षित वर्ग बुद्धि की योग्य तालीम और सच्ची विचार - दिशा बिना अन्धे जैसा है । जैन समाज के त्यागी वर्ग की और उसका अनुसरण करने वाले सब वर्गों की स्थिति एक समान बिगड़ी हुई है । वे त्याग की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं पर उनका जीवन दूसरों के कर्मों पर अनिवार्य रूप से अवलम्बित होने के कारण वे सच्ची रीति से त्याग की साधना नहीं कर सकते और कर्मपथ का आचरण भी नहीं कर सकते । जो प्रवृत्ति में पड़े हुए हैं वे मुसीबतों के ऐन मौके पर उसमें से मार्ग निकालने के बजाय त्याग का ऊटपटांग मार्ग ही पसन्द करते हैं। इससे जैन समाज की प्रवृत्ति या निवृत्ति एक भी वास्तविक रहने नहीं पाई । गृहस्थ अपनी भूमिका के अनुसार प्रवृत्तिधर्म को थोड़ा भी सँभाल नहीं पाते । इस कठिनाई में से बचने की कुञ्जी मेरी समझ में भगवान् ऋषभदेव के स्वाभाविक जीवन-क्रम में से मिलती है । ऋषभ का जीवन बहुत दीर्घकाल से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001054
Book TitleChar Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Shobhachad Bharilla, Bhavarmal Singhi, Sagarmal Jain, Dalsukh Malvania
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1989
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, History, & E000
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy