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________________ १५ : भगवान् ऋषभदेव और उनका परिवार ] आजकल का यह समर्थन सिर्फ वास्तविकता की दृष्टि से ही है तो इससे इतना तो सिद्ध होता ही है कि प्रवृत्तिधर्म से सम्बन्ध रखनेवाली उपर्युक्त घटनाएँ ऋषभ के जीवन में हुई हों या किसी दूसरे के जीवन में हुई हों या आज किसी साधारण व्यक्ति के जीवन में हों, वे सब वस्तुतः समर्थन योग्य हैं और उनका व्यक्तिगत समग्र जीवन की दृष्टि से तथा सामाजिक पूर्ण जीवन की दृष्टि से पूरा-पूरा स्थान है । अगर एक बार यह बात सिद्ध हो गई और यह स्वाभाविक है ऐसा मालूम हो जाय तो फिर आजकल के जैन समाज के मानस में जो ऐकान्तिक निवृत्तिधर्म के संस्कार जाने - अजाने घर किये हुये हैं और अविवेकपूर्वक पुष्ट किये जा रहे हैं उनका संशोधन करना समझदार लोगों का कर्तव्य है । यह संशोधन हम ऋषभ के पूर्ण जीवन का आदर्श रखकर करें तो उसमें भगवान् महावीर द्वारा परिष्कृत किया हुआ निवृत्तिधर्म तो आ ही जाता है लेकिन वैयक्तिक और सामाजिक पूर्ण जीवन के अधिकारप्राप्त सारे कर्त्तव्य और प्रवृत्तियों का समाधान भी मिल जाता है। इस समाधान के आधार पर दुनिया की कोई भी आवश्यक और विवेकयुक्त प्रवृत्ति सच्चे त्याग जितनी ही कीमती दिखाई देगी और वैसा होगा तो निवृत्तिधर्म के एकदेशीय जाल में फँसे हुए जैनसमाज की समस्या अपने आप हल हो जायगी । गीता का श्राश्रय लेकर हेमचन्द्र द्वारा निवृत्तिधर्म में संशोधन ऊपर कहा गया है कि हेमचन्द्र के परम्परागत ऐकान्तिक निवृत्तिधर्म के संस्कार होते हुये भी उनको ऋषभ के जीवन की सब सावद्य दिखाई देनेवाली प्रवृत्तियों का बचाव करना था । उनके वास्ते यह एक गूढ़ समस्या थी - पर उनकी सर्वशास्त्र को स्पर्श करने वाली और हर जगह से सत्य को बटोर लेने वाली गुणग्राहक दृष्टि के कारण उनको उक्त समस्या का समाधान गीता में से मिल गया । प्रवृत्ति और निवृत्ति के बीच में जो सब कलहमय विरोध होता था, उनका गीताकार ने अनासक्त दृष्टि की बात लाकर समाधान कर दिया है। उसी दृष्टि को हेमचन्द्राचार्य ने अपनाया और भगवान् ऋषभदेव द्वारा आचरित समग्र जीवनव्यापी व्यवहार में उसको लागू किया | हेमचन्द्र की उलझन सुलझ गई। उन्होंने बड़े उल्लास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001054
Book TitleChar Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Shobhachad Bharilla, Bhavarmal Singhi, Sagarmal Jain, Dalsukh Malvania
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1989
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, History, & E000
File Size8 MB
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