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[ चार तीर्थंकर : १४
हुए - इन सब घटनाओं का समर्थन' आचार्य जिनसेन और हेमचन्द्र करते हैं । इतना ही नहीं बल्कि आजकल के भी सब छोटे बड़े फिरकों के धर्मोपदेशक पंडित और त्यागी ऐसा ही करते हैं । यहाँ सवाल यह है कि प्राचीन काल में किया गया और आज कल भी किया जाने वाला यह समर्थन क्या वास्तविकता की दृष्टि से होता है, या महान् पुरुष के जीवन की घटनाएँ होने के कारण ही उनका समर्थन किया जाता है ? अगर सिर्फ महान् पुरुष के जीवन की घटनाएँ होने के कारण ही ( वस्तुतः समर्थन के योग्य न होते हुए भी) उनका समर्थन किया हुआ है और आजकल भी किया जाता है - यह विकल्प स्वीकार किया जाय तो इससे जैन समाज की चालू समस्याओं का हल तो होता ही नहीं बल्कि पंडितों और आचार्यों के विचार तथा व्यवहार का असत्य सेवन रूप निर्बल पक्ष भी प्रकट होता है । अगर इस विकल्प को स्वीकार किया जाय कि प्राचीन काल का और
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नाभिराजोऽन्यदा दृष्ट्वा यौवनारम्भमीशितुः ।
परिणाययितुं देवमिति चिन्ता मनस्यधात् ॥ ५० ॥ गुरुवोऽहं तद्देव त्वामित्यभ्यर्थये विभुम् । मति विधेहि लोकस्य सर्जनं प्रति संप्रति ॥ ६० ॥ त्वामादिपुरुषं दृष्ट्वा लोकोऽप्येवं प्रवर्तताम् । महतां मार्गवर्तिन्यः प्रजाः सुप्रजसो ह्यमूः ।। ६१ ।। इत्युदीर्य गिरं धीरो व्यरंसीन्नभिपार्थिवः । देवस्तु सस्मितं तस्य वचः प्रत्यैच्छदोमिति ॥ ६६ ॥ किमेतत् पितृदाक्षिण्यं किं प्रजानुग्रहैषिता । नियोगः कोपि वा तादृग येनैच्छत्तादृशं वशी ।। ६७ ।। अनङ्गत्वेन तन्नूनमेनयोः प्रविशन् वपुः । दुर्गाश्रित इवानङ्गो विव्याधैनं स्वसायकैः ॥ ६८ ॥ ताभ्यामिति समं भोगान् भुञ्जानस्य जगद्गुरोः ।
कालो महान् अगादेकक्षणवत् सततक्षणैः ॥ ६६ ॥ असिषि: कृषिविद्या वाणिज्यं शिल्पमेव च ।
कर्माणीमानि षोढा स्युः प्रजाजीवनहेतवः ।। १७६ ।। तत्र वृत्ति प्रजानां स भगवान् मतिकौशलात् । उपाक्षित् सरागो हि स तदासीज्जगद् गुरुः ॥ १८० ॥ जिनसेने महापुराण पर्व १६
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