________________
१३ : भगवान् ऋषभदेव और उनका परिवार] लोगों में विवाह-प्रवृत्ति चालू रखने के लिए विवाह किया। वे कहते हैं कि सुनन्दा को स्वीकार करके ऊसका अनाथपन दूर किया। वे कहते हैं कि अनेक पत्नियों और सैकड़ों सन्तान वाला गृहस्थधर्म भगवान् ने अनासक्त भाव से बरता। वे कहते हैं कि अनेक प्रकार के धंधे और शिल्प सिखाकर भगवान् ने समाज में जीवनयात्रा सरल करके उपकार किया। वे कहते हैं कि सन्तान को योग्य बना कर उसको सारी गृह राज्य की व्यवस्था सौंप कर ही दीक्षा ली (पर्व१. सर्ग. ३) और इस तरह से भगवान् ने जीवन-मार्ग में सामंजस्य स्थापित किया। हेमचन्द्र निवृत्तिधर्म से विरुद्ध दिखाई देनेवाले प्रवृत्तिधर्म के एक-एक अंग का समर्थन संक्षेप में एक ही वाक्य से करते हैं कि भगवान् विशिष्ट ज्ञानी थे, इसलिये उन्होंने त्याज्य और सावध कर्मों को भी कर्तव्य समझ कर अनासक्त भाव से किया।
ऋषभदेव का विवाह, उनसे उत्पन्न हुई सन्तति; सन्तति को उन्होंने जो शिक्षण दिया और उसका जो पोषण किया, प्रजा सामान्य को जीवनोपयोगी कहे जाने वाले आरम्भ समारम्भ वाले सब तरह के धंधों का जो शिक्षण दिया तथा उन धन्धों में खुद प्रवृत्त
ततश्चकाकिनी मुग्धां मिथुनान्यवलोक्य ताम् । किंकर्तव्यविमूढानि श्रीनाभेरुपनिन्यिरे ॥ ७५५ ॥ एषा ऋषभनाथस्य धर्मपत्नी भवत्विति। प्रति जग्राह तां नाभिनेत्रकैरवकौमुदीम् ॥ ७५६ ।। स्वाम्यप्यवधिनाऽज्ञासीत् कर्म भोगफलं दृढ़म् । त्र्यशीति पूर्वलक्षाणां यावद् भोक्तव्यमस्ति नः ॥ ७६६ ॥ अवश्यभोक्तव्यमिदं कर्मेत्याधूनयन् शिरः ॥ ७६७ ।।
त्रिषष्टि० १. २. भोगान् स्वाम्यप्यनासक्तः पत्नीभ्यां बुभुजे चिरम् । सद्वेदनीयमपि हि न कर्म क्षीयतेऽन्यथा ॥ ८८२ ॥
त्रिषष्टि० १. २. एतच्च सर्व सावद्यमपि लोकानुकम्पया । स्वामी प्रवर्तयामास जानन् कर्तव्यमात्मनः ।। ६७१ ॥
-त्रिषष्टि० १, २.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org