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________________ चार तीर्थंकर : १४१ सामयिक आदि ग्यारह अंग पढ़ता है या वह चतुर्दश पूर्व पढ़ता है। हमें इन उल्लेखों के ऊपर से विचार यह करना है कि, महावीर के पूर्व पार्श्वनाथ या उनकी परंपरा की श्रुत-सम्पत्ति क्या थी ? और इसमें से महावीर को विरासत मिली या नहीं ? एवं मिली तो किस रूप में ? शास्त्रों में यह तो स्पष्ट ही कहा गया है कि, आचारांग आदि ग्यारह अंगों की रचना महावीर के अनुगामी गणधरों ने की। यद्यपि नन्दीसूत्र की पुरानी व्याख्या-चूर्णि-जो विक्रम की आठवीं सदी से अर्वाचीन नहीं-उसमें 'पूर्व' शब्द का अर्थ बतलाते हुये कहा गया है कि, महावीर ने प्रथम उपदेश दिया इसलिये 'पूर्व' कहलाये, इसी तरह विक्रम की नौवीं शताब्दी के प्रसिद्ध आचार्य वीरसेन ने धवला में 'पूर्वगत' का अर्थ बतलाते हुए कहा कि जो पूर्वो को प्राप्त हो या जो पूर्व स्वरूप प्राप्त हो वह 'पूर्वगत'; परन्तु चूर्णिकार एवं उत्तरकालीन वीरसेन, हरिभद्र, मलयगिरि आदि व्याख्याकारों का वह कथन पूर्व और केवल 'पूर्वगत' शब्द का अर्थ घटन करने के अभिप्राय से हुआ जान पड़ता है। जब भगवती में कई जगह महावीर के मुख से यह कहलाया गया है कि, अमुक वस्तु पुरुषादानीय १. ग्यारह अंग पढ़ने का उल्लेख-भगवती ११-१-४-१८, १६ ५, पृ० ७६; ज्ञाता धर्मकथा, अ० १२। चौदह पूर्व पढ़ने का उल्लेख-भगवती ११-११-४३२, १७-२-६१७; ज्ञाता धर्मकथा, अ० ५। ज्ञाता० अ० १६ में पांडवों के चौदह पूर्व पढ़ने का व द्रोपदी के ग्यारह अंग पढ़ने का उल्लेख है। इसी तरह ज्ञाता० २-१ में काली साध्वी बन कर ग्यारह अंग पढ़ती है, ऐसा वर्णन है। २-३. जम्हा तित्थकरो तित्थपवत्तणकाले गणधराण सव्वसुत्ताधार तणतो पुव्वं पुव्वगतसुत्तत्थं भासति तुम्हा पुव्वं ति भणिता, गणधरा पुण सुतरयणं करेन्ता आयाराइकमेण एएंति ठर्वेति य । -नन्दीसूत्र (विजयदानसूरिसंशोधित) चूणि, पृ० १११ अ । ४. पुव्वाणं गयं पत्त-पुव्यसरूवं वा पुव्वगयमिदि गणणाम । -षट्खंडागम (धवला टीका), पुस्तक १, पृ० ११४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001054
Book TitleChar Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Shobhachad Bharilla, Bhavarmal Singhi, Sagarmal Jain, Dalsukh Malvania
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1989
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, History, & E000
File Size8 MB
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