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________________ १४० : भगवान् पाश्वानथ की विरासत इन्हीं पाँच यमों को महाव्रत भी कहा है-जबकि वे पाँच यम परिपूर्ण या जाति-देश-काल-समयानवच्छिन्न हों। मेरा ख्याल है कि, महावीर द्वारा पाँच यमों पर अत्यन्त भार देने एवं उनको महाव्रत के रूप से मान लेने के कारण ही 'महाव्रत' शब्द पाँच यमों के लिये विशेष प्रसिद्धि में आया। आज तो यम या याम शब्द पुराने जैनश्रुत में बौद्ध पिटकों में और उपलब्ध योगसूत्र में मुख्यतया सुरक्षित है । 'यम' शब्द का उतना प्रचार अब नहीं है, जितना प्रचार 'महाव्रत' शब्द का। जब चार याम में से महावीर के पांच महाव्रत और बुद्ध के पाँच शील के विकास पर विचार करते हैं तब कहना पड़ता है कि, पार्श्वनाथ के चार याम की परंपरा का ज्ञातपुत्र ने अपनी दृष्टि के अनुसार और शाक्यपुत्र ने अपनी दृष्टि के अनुसार विकास किया है', जो अभी जैन और बौद्ध परंपरा में विरासतरूप से विद्यमान है। श्रुत___ अब हम अन्तिम विरासत--श्रुतसम्पत्ति-पर आते हैं। श्वेतां बर-दिगम्बर दोनों के वाङमय में जैन श्रत का द्वादशांगी रूप से निर्देश है। आचारांग आदि ग्यारह अंग और बारहवें दृष्टिवाद अंग का एक भाग चौदह पूर्व, ये विशेष प्रसिद्ध हैं। आगमों के प्राचीन समझे जाने वाले भागों में जहाँ किसी के अनगार धर्म स्वीकार करने की कथा है वहाँ या तो ऐसा कहा गया है कि वह १. अध्यापक धर्मानन्द कौशाम्बी ने अन्त में जो 'पार्श्वनाथचा चातुर्याम धर्म' नामक पुस्तक लिखी है उसका मुख्य उद्देश्य ही यह है कि, शाक्यपुत्र ने पार्श्वनाथ केचातुर्यामधर्म की परंपरा का विकास किस-किस तरह से किया, यह बतलाना। २. षट्खण्डागम (धवला टीका), खण्ड १, पृ० ६ : बारह अंग गिज्झा । समवायांग, पत्र १०६, सूत्र १३६ : दुवालसंगे गणिपिडगे । नन्दीसूत्र (विजयदानसूरि संशोधित) पत्र ६४ : अंगपविट्ठ दुवालसविहं पण्णत्त । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001054
Book TitleChar Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Shobhachad Bharilla, Bhavarmal Singhi, Sagarmal Jain, Dalsukh Malvania
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1989
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, History, & E000
File Size8 MB
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