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चार तीर्थंकर : १३ε.
प्रतिक्रमणधर्म का उदाहरण पर्याप्त है । महावीर ने प्रतिक्रमणधर्म भी सभी निर्ग्रथों के लिए समान रूप से अनुशासित किया। इस प्रकाश में पंच महाव्रतधर्म का अनुशासन भी सभी निर्ग्रथों के लिये रहा हो, यही मानना पड़ता है । मूलाचार आदि दिगंबर परंपरा में जो विचारभेद सुरक्षित है वह साधार अवश्य है, क्योंकि श्वेतांबरीय सभी ग्रन्थ छेदोपस्थान सहित पांच चरित्र का प्रवेश महावीर के शासन में बतलाते हैं । पाँच महाव्रत और पाँच चारित्र ये एक नहीं । दोनों में पाँच की संख्या समान होने से मूलाचार आदि ग्रंथों एक विचार सुरक्षित रहा तो श्वेतांबर ग्रंथों में दूसरा भी विचार सुरक्षित है । कुछ भी हो, दोनों परंपरायें पंच महाव्रतधर्म के सुधार के बारे में एक-सी सम्मत हैं ।
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वस्तुतः पाँच महाव्रत यह पारवपित्यिक चातुर्याम का स्पष्टीकरण ही है । इससे यह कहने में कोई बाधा नहीं कि, महावीर को संयम या चारित्र की विरासत भी पार्श्वनाथ की परम्परा से मिली है ।
हम योगपरंपरा के आठ योगांग से परिचित हैं । उनमें से प्रथम अंग यम है । पातंजल योगशास्त्र ( २ - ३०, ३१) में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाँच यम गिनाये हैं; साथ ही
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इनमें से " सव्व - पारिवारितो" का अर्थ अट्ठकथा के अनुसार श्री राहुल जी आदि ने किया है कि - "निगण्ठ (निग्रंथ) जल के व्यवहार का वारण करता है (जिससे जल के जीव न मारे जावें । " ( दीघनिकाय, हिन्दी अनुवाद, पृ० २१) पर यह अर्थ भ्रमपूर्ण है । जलबोधक " वारि" शब्द होने से तथा निर्ग्रन्थ सचित्त जल का उपयोग नहीं करते, इस वस्तुस्थिति के दर्शन से म्रम हुआ जान पड़ना है । वस्तुतः " सव्व-वारि-वारिता” का अर्थ यही है कि सब अर्थात् हिंसा आदि चारों पापकर्म के वारि अर्थात् वारण याने निषेध के कारण वारित अर्थात् विरत; याने हिंसा आदि सब पापकर्मों के निवारण के कारण उन दोषों से विरत । यही अर्थं अगले "सव्व-वारि-युतो", सब्त्र-वारि-धुतो" इत्यादि विशेषण में स्पष्ट किया गया है । वस्तुतः सभी विशेषण एक ही अर्थ को भिन्न-भिन्न भंगी से दरसाते हैं ।
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