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________________ १३४ : भावान पार्श्वनाथ की विरासत या अनगार धर्म की बाह्य चर्या पाश्र्वापत्यिक परंपरा से मिली हैभले ही उन्होंने उसमें देशकालानुसारी थोड़ा बहुत परिवर्तन किया हो। आभ्यन्तर आचार भी भगवान् महावीर का वही है जो पार्वापत्यिकों में प्रचलित था। कालासवेसीपुत्त जैसे पार्वापत्यिक आभ्यन्तर चरित्र से संबद्ध पारिभाषिक शब्दों का जब अर्थ पूछते हैं तब महावीर के अन्यायी स्थविर वही जवाब देते हैं, जो पाश्र्वापत्यिक परंपरा में भी प्रचलित था। निग्रंथों के बाह्य-आभ्यन्तर आचार-चारित्र के पार्वपरंपरा से विरासत में मिलने पर भी महावीर ने उसमें जो सुधार किया है वह भी आगमों के विश्वसनीय प्राचीन स्तर में सुरक्षित है । पहले संघ की विरासतवाले वर्णन में हमने सूचित किया ही है कि, जिनजिन पाश्र्वापत्यिक निग्रंथों ने महावीर का नेतृत्व माना उन्होंने सप्रतिक्रमण पांच महाव्रत स्वीकार किये। पार्श्वनाथ की परंपरा में चार याम थे, इसलिए पार्श्वनाथ का निग्रंथ धर्म चातुर्याम कहलाता था। इस बात का समर्थन बौद्ध पिटक दीघनिकाय के सामञफलसुत्त में आये हुए निग्रंथ के "चातु-याम-संवर-संवुतो" इस विशेषण से होता है। यद्यपि उस सूत्र में ज्ञातपुत्र महावीर के मुख से चातुर्यामधर्म का वर्णन बौद्ध पिटक-संग्राहकों ने कराया है, पर इस अंश में वे भ्रान्त जान पड़ते हैं। पाश्र्वापत्यिक परंपरा बुद्ध के समय में विद्यमान भी थी और उससे बुद्ध का तथा उनके कुछ अनुयायियों का परिचय भी था, इसलिए वे चातुर्याम के बारे में ही जानते थे। चातुर्याम के स्थान में पांच यम या पाँच महाव्रत का परिवर्तन महावीर ने किया, जो पाश्र्वापत्यिकों में से ही एक थे। यह परिवर्तन पाश्र्वापत्यिक परंपरा की दृष्टि से भले ही विशेष महत्व रखता हो, पर निग्रंथ-भिन्न इतर समकालीन बौद्ध जैसी श्रमण परंपराओं के लिए कोई खास ध्यान देने योग्य बात न थी। जो परिवर्तन किसी एक फिरके की आन्तरिक वस्तु होती है उसकी जानकारी इतर परंपराओं में बहुधा तुरन्त नहीं होती। बुद्ध के सामने समर्थ पाश्र्वापत्यिक निग्रंथ ज्ञातपुत्र महावीर ही रहे, इसलिए बौद्धग्रन्थ में पाश्र्वापत्यिक परम्परा का चातुर्याम धर्म महावीर के से कहलाया जाय तो यह स्वाभाविक है। परन्तु इस वर्णन के ऊपर से इतनी बात निर्विवाद साबित होती है कि, पाश्र्वापत्यिक निग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001054
Book TitleChar Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Shobhachad Bharilla, Bhavarmal Singhi, Sagarmal Jain, Dalsukh Malvania
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1989
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, History, & E000
File Size8 MB
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