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________________ चार तीर्थंकर : १३५ पहले चातुर्यामधर्म के अनुयायी थे और महावीर के सम्बन्ध से उस परंपरा में पंच यम दाखिल हुए; दूसरा सुधार महावीर ने सप्रतिक्रमण धर्म दाखिल करके किया है, जो एक निग्रंथ परम्परा का आंतरिक सुधार है। संभवतः इसीलिये बौद्ध ग्रन्थों में इसका कोई निर्देश नहीं। बौद्ध ग्रन्थों में पूरणकाश्यप द्वारा कराये गये निग्रंथ के वर्णन में 'एकशाटक' विशेषण आता है; 'अचेल' विशेषण आजोवक के साथ आता है। निग्रंथ का 'एकशाटक' विशेषण मुख्यतया पाश्र्वापत्यिक निग्रंथ की ओर ही संकेत करता है। हम आचारांग में वणित और सबसे अधिक विश्वसनीय महावीर के जीवन-अंश से यह तो जानते ही हैं कि महावीर ने गृहत्याग किया तब एक वस्त्रचेल धारण किया था। क्रमशः उन्होंने उसका हमेशा के वास्ते त्याग किया और पूर्णतया अचेलत्व स्वीकार किया। उनकी यह अचेलत्व भावना मूलगत रूप से हो या पारिपाश्विक परिस्थिति में से ग्रहण कर आत्मसात् की हो, यह प्रश्न यहाँ प्रस्तुत नहीं; प्रस्तुत इतना ही है कि, .महावीर ने सचेलत्व में से अचेलत्व की ओर कदम बढ़ाया। इस प्रकाश में हम बौद्धग्रन्थों में आये हुए निग्रंथ के विशेषण "एकशाटक" का तात्पर्य सरलता से निकाल सकते हैं । वह यह कि, पाश्र्वापत्यिक परंपरा में निग्रंथ के लिए मर्यादित वस्त्रधारण वजित न था, जव कि महावीर ने वस्त्रधारण के बारे में अनेकान्तदृष्टि से काम लिया। उन्होंने सचेलत्व और अचेलत्व दोनों को निग्रंथ संघ के लिये यथाशक्ति और यथारुचि स्थान दिया। अध्यापक धर्मानन्द कौशाम्बी ने भी अपने "पार्श्वनाथाचा चातुर्यामधर्म" १. अंगुत्तरनिकाय छक्कनिपात, २-१ । २. णो चेविमेण वत्थेण पिहिस्सामि तंसि हेमंते । से पारए आवकहाए एयं खु अणुधम्मियं तस्स ।।२।। संवच्छरं साहियं मासं जं न रिक्कासि वत्थगं भगवं । अचेलए तओ चाइ तं वोसिज्ज वत्थमणगारे ॥४॥ -आचारांग, १-१-१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001054
Book TitleChar Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Shobhachad Bharilla, Bhavarmal Singhi, Sagarmal Jain, Dalsukh Malvania
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1989
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, History, & E000
File Size8 MB
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