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________________ चार तीर्थंकर : १३३ पूरी प्रतीति कर लेने के पश्चात् ही उनको विधिवत् वन्दन-नमस्कार - "तिक्खुतो आयाहिणं पयाहिणं वन्दामि " करते हैं; उसके पहले तो वे केवल उनके पास शिष्टता के साथ आते हैं - "अदूर सामंते ठिच्चा" । पार्श्वनाथ की परंपरा के त्यागी और गृहस्थ व्यक्तियों से सम्बन्ध रखने वाली, उपलब्ध आगमों में जो कुछ सामग्री है, उसको योग्य रूप में संकलित एवं व्यवस्थित करके पार्श्वनाथ के महावीरकालीन संघ का सारा चित्र पं० दलसुख मालवणिवा ने अपने एक अभ्यासपूर्ण लेख में, बीस वर्ष पहले खींचा है, जो इस प्रसंग में खास द्रष्टव्य है । यह लेख 'जैन प्रकाश' के 'उत्थान- महावीरांक' में छपा है । आचार अब हम आचार की विरासत के प्रश्न पर आते हैं । पावपत्यिक निर्ग्रन्थों का आचार बाह्य आभ्यन्तर दो रूप में देखने में आता है । अनगारत्व, निर्ग्रन्थत्व, सचेला, शीत, आतप आदि परिषह-सहन, नाना प्रकार के उपवासव्रत और भिक्षाविधि के कठोर नियम इत्यादि बाह्य आचार हैं । सामायिक समत्व या समभाव, पच्चक्खाण - त्याग, संयम - इन्द्रियनियमन, संवर -- कषायनिरोध, विवेक -- अलिप्तता या सदसद्विवेक, व्युत्सर्ग- ममत्वत्याग, हिंसा असत्य अदत्तादान और बहिद्धादाण से विरति इत्यादि आभ्यन्तर आचार में सम्मिलित हैं । पहले कहा जा चुका है कि, बुद्ध ने गृहत्याग के बाद निय आचारों का भी पालन किया था । बुद्ध ने अपने द्वारा आचरण किये गये निर्ग्रथ आचारों का जो संक्षेप में संकेत किया है उसका पारवपित्यिक निग्रंथों की चर्या के उपलब्ध वर्णन के साथ मिलान करते हैं एवं महावीर के द्वारा आचरित बाह्य चर्या के साथ मिलान करते हैं तो सन्देह नहीं रहता कि महावीर को निग्रंथ १. दशवेकालिक, अ०३, ५-१ और मज्झिमनिकाय, महासिंह्नादसुत्त । २. आचारांग, अ० ६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001054
Book TitleChar Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Shobhachad Bharilla, Bhavarmal Singhi, Sagarmal Jain, Dalsukh Malvania
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1989
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, History, & E000
File Size8 MB
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