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११८ : भ० महावीर की मंगल विरासत
स्पर्श करते हैं और मानवभूमिका को प्राप्त जीव भी कभी अवक्रान्तिक्रम में अन्य प्राणी का स्वरूप प्राप्त करते हैं । ऐसी उत्क्रान्ति और अवक्रान्ति का चक्र चलता ही रहता है । किन्तु उससे मूल चैतन्य के स्वरूप में कुछ भेद नहीं होता । जो भेद होता होता भी है वह व्यावहारिक है।
भगवान् की आत्मौपम्य की दृष्टि में जीवनशुद्धि का प्रश्न आ ही जाता है । अज्ञात काल से चेतन का प्रकाश कितना भी आवृत क्यों न हुआ हो, उसका आविर्भाव कम या ज्यादा हो फिर भी उसकी शक्ति पूर्ण विकास - पूर्ण शुद्धि ही है । यदि जीवनतत्व में पूर्णशुद्धि की शक्यता न हो तो आध्यात्मिक साधन का कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता । जिस किसी देश में सच्चे अध्यात्मिक अनुभवी हुए हैं उन सब की प्रतीति एक जैसी ही है कि चेतन तत्व वस्तुतः शुद्ध है । वासना और लेप से पृथक् है । शुद्ध चैतन्य के ऊपर जो वासना या कर्म की छाया पड़ती है वह उसका मूल स्वरूप नहीं है । मूलस्वरूप तो उससे भिन्न ही है । यह जीवनशुद्धि का सिद्धान्त हुआ, जिसे हमने आत्मोपम्य की दृष्टि कहा और जिसे जीवनशुद्धिकी दृष्टि कहा उसमें वेदान्तियों का ब्रह्माद्वैतवाद या बौद्धों का विज्ञानाद्वैतवाद या वैसे ही दूसरे केवलाद्वत शुद्धाद्व ेत जैसे वाद समाविष्ट हो जाते हैं, भले ही सांप्रदायिक परिभाषा के अनुसार उनका भिन्न-भिन्न अर्थ होता हो ।
यदि तत्वतः जीव का स्वरूप शुद्ध ही है तो फिर हमें उस स्वरूप को पुष्ट करने और प्राप्त करने के लिए क्या करना यह साधनाविषयक प्रश्न उपस्थित होता है । भगवान् महावीर ने उक्त प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा है कि जब तक जीवनव्यवहार में परिवर्तन नहीं होता, आत्मोपम्य की दृष्टि और आत्मशुद्धि की सिद्धि हो ऐसा जीवनव्यवहार में परिवर्तन न हो तब तक उक्त दोनों बातों का अनुभव हो नहीं सकता । जीवनव्यवहार के परिवर्तन को जैनपरिभाषा में चरण-करण कहते हैं । व्यवहारभाषा में उसका यही अर्थ है कि बिलकुल सरल, सादा और निष्कपट जीवन बिताना | व्यावहारिक जीवन यह आत्मौपम्य की दृष्टि विकसित करने का और आत्मशुद्धि सिद्ध करने का एक साधन है । यह नहीं
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