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________________ चार तीर्थंकर : ११६ कि उक्त दृष्टि और शुद्धि के ऊपर अधिक आवरण-मायिक जाल बढ़ाने का। जीवनव्यवहार के परिवर्तन के विषय में एक ही मुख्य बात समझने की है और वह यह कि प्राप्त स्थूल साधनों का इस प्रकार का उपयोग न करना कि जिससे हम अपनी आत्मा को ही खो बैठे। किन्तु उक्त सभी बातें सच होने पर भी यह विचारने का रहता ही है कि यह सब कैसे हो? जिस समाज, जिस लोकप्रवाह में हम रहते हैं उसमें तो ऐसा कुछ भी घटित होता हो ऐसा नजर नहीं आता। क्या ईश्वर या ऐसी कोई दैवी शक्ति नहीं है जो हमारा हाथ पकड़ ले और लोकप्रवाह से विपरीत दिशा में हमें ले चले. ऊर्ध्वगति दे ? इसका उत्तर महावीर ने स्वानुभव से दिया है और वह यह कि इसके लिए पुरुषार्थ ही आवश्यक है । जब तक कोई भी साधक स्वयं पुरुषार्थ न करे, वासनाओं के प्रतिकूल आचरण न करे, उसके आघात-प्रत्याघात से क्षोभ का अनुभव बिना किये अडिगरूप से उसके सामने युद्ध करने का पराक्रम न दिखावे तब तक उपर्युक्त एक भी बात सिद्ध नहीं हो सकती। इसीसे उन्होंने कहा है कि 'संजमम्मि य वीरियं' अर्थात् संयम, चरित्र, सरल जीवनव्यवहार इन सबके लिए पराक्रम करना चाहिए। वस्तुतः महावीर यह नाम नहीं है, विशेषण है । जो ऐसा वीर्यपराक्रम दिखाते हैं वे सभी महावीर हैं। इसमें सिद्धार्थनन्दन तो आ ही जाते हैं और इनके अलावा अन्य सभी वैसे अध्यात्मपराक्रमो भी आ जाते हैं। जो बात महावीर ने प्राकृत भाषा में कही है वही बात दूसरी परिभाषा में तनिक दूसरी तरह से उपनिषदों में भी है । जब ईशावस्य मंत्र के प्रणेता ऋषि कहते हैं कि समस्त विश्व में जो कुछ दृश्य है वह सब ईश से व्याप्त है तब वह यही बात दूसरे ढग से करते हैं । लोग ईश शब्द से यदि ईश्वर समझते हैं तो उसमें कुछ बुरा नहीं है। क्योंकि जो चेतनतत्व समस्त विश्व में व्याप्त है वह शुद्ध होने से ईश ही है, समर्थ ही है। यहाँ ईश्वर-अनीश्वरवाद या द्वैताद्वैतवाद की तार्किक मीमांसा नहीं है। यहाँ तो चेतन तत्व की व्याप्ति की बात है वह ऋषि कहते हैं कि यदि समस्त विश्व में For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001054
Book TitleChar Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Shobhachad Bharilla, Bhavarmal Singhi, Sagarmal Jain, Dalsukh Malvania
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1989
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, History, & E000
File Size8 MB
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