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चार तीर्थंकर : ११७
अपना सम्बन्ध होता है उसके जीवन का मूल्य करते हैं । इससे आगे बढ़कर समस्त मानव समाज और उससे भी आगे बढ़कर हमारे सम्बद्ध पशु- -पक्षी के भी जीवन का मूल्य आँकते हैं । किन्तु महावीर की स्वसंवेदनदृष्टि उससे भी आगे बढ़ गई थी । काका साहब ने महावीर की जीवनदृष्टि का उल्लेख करते हुए कहा था कि वे एक ऐसे धैर्य सम्पन्न और सूक्ष्म-प्रज्ञ थे कि उन्होंने कीट-पतंङ्ग तो क्या जल और वनस्पति जैसी जीवनशून्य मानी जानेवाली भौतिक वस्तुओं में भी जीवनतत्व देखा था । महावीर ने जब अपनी जीवनदृष्टि लोगों के समक्ष रखी तब उसे कौन ग्रहण कर सकेंगे इसका विचार नहीं किया किन्तु इतना ही सोचा कि काल निरवधि है और पृथ्वो विशाल है, कभी न कभी तो कोई उसे समझेगा ही । जिसे गहनतम स्पष्ट प्रतीति होती है वह अधीर होकर ऐसा नहीं सोचता कि मेरी प्रतीति को तत्काल ही लोग क्यों नहीं समझ जाते ?
महावीर ने आचारांग नामक अपने प्राचीन उपदेशग्रन्थ में बहुत सरल ढंग से अपनी बात उपस्थित की है और कहा है कि प्रत्येक को जीवन प्रिय है, जैसा कि स्वयं हमें । भगवान् की सरल सर्वग्राह्य दलील इतनी ही है कि मैं आनन्द और सुख चाहता हूं इसी से मैं स्वयं हूं । तो फिर इसी न्याय से आनन्द और सुख को चाहने वाले दूसरे भी प्राणी होते हैं । ऐसी स्थिति में ऐसा कैसे कहा जाय कि मनुष्य में ही आत्मा है, पशु-पक्षी में ही आत्मा है और दूसरे में नहीं है ? कोट और पतंग अपने ढंग से सुख की शोध करते नजर आते हैं किन्तु सूक्ष्मतम वानस्पतिक जीवसृष्टि में भी संतति और पोषण की प्रक्रिया अगम्य रूप से चलती ही रहती है । भगवान् की यह दलील थी और इसके आधार पर उन्होंने समस्त विश्व में अपने समान ही चेतनतत्व को उल्लसित देखा । उसे धारण करने वाले, शरीर और इन्द्रियों के आकार-प्रकार में कितना ही अन्तर क्यों न हो, कार्यशक्ति में भी अन्तर हो फिर भी तात्त्विक रूप से सर्व व्यापी चेतन तत्त्व एक ही प्रकार का विलसित हो रहा है । भगवान् की इस जीवनदृष्टि को हम आत्मौपम्य दृष्टि कह सकते हैं । हम सब जैसे तात्विक रूप से हैं वैसे ही छोटे-बड़े सभी प्राणी भी । जो अन्य प्राणी रूप में हैं वे भी कभी न कभी विकासक्रम में मानवभूमिका को
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