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१०८ : भगवान् महावीर का जीवन ]
का निर्देश नहीं है फिर भी जब तक हम प्राचीन शतपथ आदि ब्राह्मण-ग्रन्थ और आपस्तम्ब, कात्यायन आदि श्रौत सूत्र न देखें तब तक हम भगवान् की धार्मिक प्रवृत्ति का न तो ठीक-ठीक मूल्य आंक सकते हैं और न ऐसी प्रवृत्ति का वर्णन करने वाले आगमिक भागों की प्राचीनता और महत्ता को ही समझ सकते हैं ।
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के जीवन में विविध यज्ञों का धर्मरूप से कैसा स्थान था और उनमें से अनेक यज्ञों में गाय, घोड़े, भेड़, बकरे आदि पशुओं का तथा मनुष्य तक का कैसा धार्मिक वध होता था एवं अतिथि के लिए भी प्राणियों का वध धर्म्य माना जाता थाइस बात की आज हमें कोई कल्पना तक नहीं हो सकती है जब की हजारों वर्ष से देश के एक छोर से दूसरे छोर तक पुरानी यज्ञप्रथा ही बन्द हो गई है और कहीं-कहीं व कभी-कभी कोई यज्ञ करते भी हैं तो वे यज्ञ बिल्कुल ही अहिंसक होते हैं ।
धर्मरूप से अवश्य कर्त्तव्य माने जाने वाले पशुवध का विरोध करके उसे आम तौर से रोकने का काम उस समय उतना कठिन तो अवश्य था जितना कठिन आज के कत्लखानों में होने वाले पशुवध को बंद कराना है | भगवान् ने अपने पूर्ववर्ती और समकालीन महान् संतों की तरह इस कठिन कार्य को करने में कोर-कसर उठा रखी न थी । उत्तराध्ययन के यज्ञीय अध्ययन में जो यज्ञीय हिंसा का आत्यन्तिक विरोध है वह भगवान् की धार्मिक प्रवृत्ति का महत्व और अगले जमाने पर पड़े हुए उसके असर को समझने के लिए जीवनी लिखने वाले को ऊपर सूचित वैदिक-ग्रन्थों का अध्ययन करना ही होगा ।
धर्म के क्षेत्र में ब्राह्मण आदि तीन वर्णों का आदर तो एक-सा ही था। तीनों वर्ण वाले यज्ञ के अधिकारी थे । इसलिए वर्ण की जुदाई होते हुए भी इसमें छुआछूत का भाव न था पर विकट सवाल
१. शतपथ ब्राह्मण का० ३० अ० ७, ८, ९ । का० ४; अ० ६ । का० ५; अ० १, २, ५ । का० ६; अ० २ । का० ११; अ० ७, ८ । का० १२; अ०७। का० १३; अ० १, २, ५ इत्यादि । कात्यायन श्रौतसूत्र - अच्युत ग्रन्थमाला भूमिकागत यज्ञों का वर्णन |
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