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________________ [चार तीर्थंकर : १०६ तो शूद्रों का था । धर्मक्षेत्र में प्रवेश की बात तो दूर रही पर उनका दर्शन तक कैसा अमंगल माना जाता था, इसका वर्णन हमें पुराने ब्राह्मण-ग्रन्थों में स्पष्ट मिलता है। शूद्रों को अस्पृश्य मानने का भाव वैदिक परंपरा में इतना गहरा था कि धार्मिक पशुवध का भाव इतना गहरा न था। यही कारण है कि बुद्ध-महावीर जैसे संतों के प्रयत्नों से धार्मिक पशुवध तो बन्द हुआ पर उसके हजार प्रयत्न करने पर भी अस्पृश्यता का भाव उसी पुराने युग की तरह आज भी मौजूद है । इतना ही नहीं बल्कि ब्राह्मण-परंपरा में रूढ़ हुए उस जातिगत अस्पृश्यता के भाव का खुद महावीर के अनुयायियों पर भी ऐसा असर पड़ा है कि वे भगवान् महावीर की महत्ता को तो अस्पृश्यता निवारण के धार्मिक-प्रयत्न से आँकते और गाते हैं फिर भी वे खुद ही ब्राह्मण-परंपरा के प्रभाव में आकर शूद्रों की अस्पृश्यता को अपने जीवन-व्यवहार में स्थान दिये हुए हैं। ऐसी गहरी जड़वाले छुआछूत के भाव को दूर करने के लिए भगवान् ने निन्दास्तुति की परवाह किए प्रबल पुरुषार्थ किया था और वह भी धार्मिक क्षेत्र में । ब्राह्मण-परंपरा अपने सर्वश्रेष्ठ यज्ञ-धर्म में शद्रों का दर्शन तक सहन करती न थी तब बुद्ध आदि अन्य संतों की तरह महावीर चाण्डाल जैसे अति श द्रों को भी अपने साधुसंघ में वैसा ही स्थान देते थे जैसा कि ब्राह्मण आदि अन्य वर्णों को। जैसे गाँधीजी ने अस्पृश्यता को जड़मूल से उखाड़ फेंकने के लिए शूद्रों को धर्ममंदिर में स्थान दिलाने का प्रयत्न किया है वैसे ही महावीर ने अस्पृश्यता को उखाड़ फेंकने के लिए शूद्रों को मूर्धन्यरूप अपने साधुसंघ में स्थान दिया था। महावीर के बाद ऐसे किसी जैन आचार्य या गृहस्थ का इतिहास नहीं मिलता कि जिसमें उसके द्वारा अति शूद्रों को साधुसंघ में स्थान दिये जाने के सबूत हों। दूसरी तरफ से सारा जैन समाज अस्पृश्यता के बारे में ब्राह्मण-परंपरा के प्रभाव से मुक्त नहीं है। ऐसी स्थिति में उत्तराध्ययन जैसे प्राचीन ग्रन्थ में एक चाण्डाल को जैन दीक्षा दिये जाने की जो घटना वर्णित है और १. शतपथ ब्राह्मण का० ३, अ० १ ब्रा० १ । २. अध्ययन १२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001054
Book TitleChar Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Shobhachad Bharilla, Bhavarmal Singhi, Sagarmal Jain, Dalsukh Malvania
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1989
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, History, & E000
File Size8 MB
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