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[चार तीर्थंकर : १०७ प्रचलित ऐसी महत्तासूचक कसौटियों पर अधिकतर भार देते हैं। और वे महत्ता की असली जड़ को बिल्कुल भुला न दें तो भी उसे गौण तो कर ही देते हैं अर्थात् उस पुरुष की महत्ता की असली चावी पर उतना भार वे नहीं देते जितना भार साधारण लोगों की मानी हुई महत्ता की कसौटियों का वर्णन करने पर देते हैं । इसका फल यह होता है कि जहाँ एक तरफ से महत्ता का मापदण्ड बनावटी हो जाता है वहाँ दूसरी तरफ से उस पुरुष की असली चावी का मूल्यांकन भी धीरे-धीरे लोगों की दृष्टि में ओझल हो जाता है । सभी महान पुरुषों की जीवनियों में यह दोष कमोबेश देखा जाता है | भगवान् महावीर की जीवनी को उस दोष से बचाना हो तो हमें साधारण लोगों की रूढ रुचि की पुष्टि का विचार बिना किये ही असली वस्तु का विचार करना होगा ।
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भगवान् के जीवन के मुख्य दो अंश हैं - एक तो आत्मलक्षी - जिसमें अपनी आत्मशुद्धि के लिए किये गये भगवान् के समग्र पुरुषार्थ का समावेश होता है |
दूसरा अंश वह है जिसमें भगवान् ने परलक्षी आध्यात्मिक प्रवृत्ति की है । जीवनी के पहिले अंश का पूरा वर्णन तो कहीं भी लिखा नहीं मिलता फिर भी उसका थोड़ा-सा पर प्रामाणिक और अतिरंजनरहित प्राचीन वर्णन भाग्यवश आचारांग प्रथम श्र तस्कंध के नवम अध्ययन में अभी तक सुरक्षित है । इससे अधिक पुराना और अधिक प्रामाणिक कोई वर्णन अगर किसी ने लिखा होगा तो वह आज सुरक्षित नहीं है । इसलिए प्रत्येक ऐतिहासिक लेखक को भगवान् की साधना कालीन स्थिति का चित्रण करने में मुख्य रूप से वह एक ही अध्ययन उपयोगी हो सकता है । भले ही वह लेखक इस अध्ययन में वर्णित साधना की पुष्टि के लिए अन्य-अन्य आगमिक भागों से सहारा ले पर उसे भगवान् की साधना कैसी थी इसका वर्णन करने के लिए उक्त अध्ययन को ही केन्द्र स्थान में रखना होगा ।
यद्यपि वैदिक परंपरा के किसी ग्रन्थ में भगवान् के नाम तक
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