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________________ प्रमेय-खण्ड ६६ कर्म और क्रियावादी नहीं हो सकता। अतएव आत्मा के विषय में विचार करना, यही संवर का और मोक्ष का भी कारण है । जीव की गति और आगति के ज्ञान से मोक्षलाभ होता है । इस बात को भगवान् महावीर ने स्पष्ट रूप से कहा है---- "इह आगई गई परिम्नाय अच्चेइ जाइमरणस्स वडमगं विक्खायरए।" आचा० १.५.६. यदि तथागत की मरणोत्तर स्थिति-अस्थिति के प्रश्न को ईश्वर जैसे किसी अतिमानव के पृथक् अस्तित्व और नास्तित्व का प्रश्न समझा जाए तो भगवान् महावीर का इस विषय में मन्तव्य क्या है, यह भी जानना आवश्यक है । वैदिक दर्शनों की तरह शाश्वत सर्वज्ञ ईश्वर को जो कि संसारी कभी नहीं होता, जैन धर्म में कोई स्थान नहीं । भगवान् महावीर के अनुसार सामान्य जीव ही कर्मों का नाश करके शुद्ध स्वरूप को प्राप्त होता है, जो सिद्ध कहलाता है । और एक बार शुद्ध होने के बाद वह फिर कभी अशुद्ध नहीं होता । यदि भगवान् बुद्ध तथागत की मरणोत्तर स्थिति को स्वीकार करते तब ब्रह्मवाद या शाश्वतवाद की आपत्ति का भय था और यदि वे ऐसा कहते कि तथागत मरण के बाद नहीं रहता, तव भौतिकवादियों के उच्छेदवाद का प्रसंग आता । अतएव इस प्रश्न को भगवान् बुद्ध ने अव्याकृत कोटि में रखा । परन्तु भगवान् ने अनेकान्तवाद का आश्रय करके उत्तर दिया है कि तथागत या अर्हत् मरणोत्तर भी है. क्योंकि ' जीव द्रव्य तो नष्ट होता नहीं, वह सिद्ध स्वरूप बनता है । किन्तु मनुप्य रूप जो कर्मकृत है वह नष्ट हो जाता है । अतएव सिद्धावस्था में अर्हत् या तथागत अपने पूर्वरूप में नहीं भी होते हैं। नाना जीवों में आकार-प्रकार का जो कर्मकृत भेद संसारावस्था में होता है, वह मिद्धावस्था में नहीं, क्योंकि वहाँ कर्म भी नहीं "कम्मो गं भंते जीवे नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ, कम्मओ णं जए णो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ ?' "हंता गोयमा !" भगवती १२.५.४५२ । १ तुलना-'अस्थि सिद्धी असिद्धी वा एवं सन्नं निवेसए।" सूत्रकृतांग २.५.२५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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