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________________ आगम-युग का जैन दर्शन इस प्रकार हम देखते हैं कि जिन प्रश्नों को भगवान् बुद्ध ने निरर्थक बताया है, उन्हीं प्रश्नों से भगवान् महावीर ने आध्यात्मिक जीवन का प्रारंभ माना है। अतएव उन प्रश्नों को भगवान् महावीर ने भगवान् बुद्ध की तरह अव्याकृत कोटि में न रखकर व्याकृत ही किया है । इतनी सामान्य चर्चा के बाद अब आत्मा की नित्यता-अनित्यता के प्रस्तुत प्रश्न पर विचार किया जाता है भगवान् बुद्ध का कहना है कि तथागत मरणानन्तर होता है या नहीं-ऐसा प्रश्न अन्यतीर्थिकों को अज्ञान के कारण होता है । उन्हें रूपादि"२ का अज्ञान है अतएव वे ऐसा प्रश्न करते हैं। वे रूपादि को आत्मा समझते हैं, या आत्मा को रूपादियुक्त समझते हैं, या आत्मा में रूपादि को समझते हैं, या रूप में आत्मा को समझते हैं, जब कि तथागत वैसा नहीं समझते" । अतएव तथागत को वैसे प्रश्न भी नहीं उठते और दूसरों के ऐसे प्रश्न को वे अव्याकृत बताते हैं । मरणानन्तर रूप वेदना आदि प्रहीण हो जाता है । अतएव अव प्रज्ञापना के साधन रूपादि के न होने से तथागत के लिए 'है' या 'नहीं है' ऐसा व्यवहार किया नहीं जा सकता। अतएव मरणानन्तर तथागत 'है' या 'नहीं है' आदि प्रश्नों को मैं अव्याकृत बताता हूँ।५४ - हम पहिले बतला आए हैं कि, इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् बुद्ध को शाश्वतवाद या उच्छेदवाद में पड़ जाने का डर था, इसलिए उन्होंने इस प्रश्न को अव्याकृत कोटि में रखा है। जब कि भगवान् महावीर ने दोनों वादों का समन्वय स्पष्ट रूप से किया है। अतएव उन्हें इस प्रश्न को अव्याकृत कहने की आवश्यकता ही नहीं। उन्होंने जो व्याकरण किया है, उसकी चर्चा नीचे की जाती है । भगवान् महावीर ने जीव को अपेक्षा भेद से शाश्वत और अशाश्वत कहा है । इस की स्पष्टता के लिए निम्न संवाद पर्याप्त है "जीवा णं भन्ते कि सासया असासया ?" ५२ संयुत्तनिकाय XXXIII. 1. ५3 वही XLIV. 8. ५४ वहीXLIV. 1. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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