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________________ आगम-युग का जैन दर्शन १. मेरी आत्मा है। २. मेरी आत्मा नहीं है । ३. मैं आत्मा को आत्मा समझता हूँ। ४. मैं अनात्मा को आत्मा समझता हूँ। ५. यह जो मेरी आत्मा है, वह पुण्य और पाप कर्म के विपाक की भोक्ता है। ६. यह मेरी आत्मा नित्य है, ध्रुव है, शाश्वत है, अविपरिणामधर्मा है, जैसी है वैसी सदैव रहेगी । अतएव उनका उपदेश है कि इन प्रश्नों को छोड़कर दुःख, दुःखसमुदय, दुःखनिरोध और दुःखनिरोध का मार्ग इन चार आर्यसत्यों के विषय में ही मन को लगाना चाहिए। उसी से आस्रव-निरोध होकर निर्वाण-लाभ हो सकता है। __ भगवान् बुद्ध के इन उपदेशों के विपरीत ही भगवान् महावीर का उपदेश है। इस बात की प्रतीति प्रथम अंग आचारांग के प्रथम वाक्य से ही हो जाती है___ "इहमेगेसि नो सन्ना भवइ तं जहा-पुरस्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, दाहिणालो वा....प्रन्नयरीयाओ वा दिसाओ वा अरणदिसाओ बा आगओ अहमंसि । एवमेगेसि नो नायं भवइ-अस्थि मे आया उबवाइए, नस्थि में आया उववाइए, के अहं आसी, के वा इओ चुमो इह पेच्चा भविस्सामि ? “से जं पुण जाणेज्जा सहसम्मुइयाए परवागरणेणं अन्न सि वा अन्तिए सोच्चा तं जहा पुरथिमाओ...एवमेगेसि नायं भवइ-अस्थि में आया उववाइए जो इमाओ दिसाओ अणुदिसाओ वा अणुसंचरइ सध्वाओ दिसाओ अणुदिसाओ सोह-से आयावाई, लोगाबाई, कम्मावाई, किरियावाई।" भगवान् महावीर के मत से जब तक अपनी या दूसरे की बुद्धि से यह पता न लग जाय कि मैं या मेरा जीव एक गति से दूसरी गति को प्राप्त होता है, जीव कहाँ से आया, कौन था और कहाँ जायगा ? - तब तक कोई जीव आत्मवादी नहीं हो सकता,लोकवादी नहीं हो सकता। ५० मज्झिमनिकाय-सम्बासवसुत. २. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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