SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेय-खण्ड ६१ करने का प्रयत्न किया है। ऐसा करने का कारण स्पष्ट यही है, कि तत्काल में प्रचलित वादों के दोषों की ओर उनकी दृष्टि गई और इस लिए उनमें से किसी वाद का अनुयायी होना उन्होंने पसंद नहीं किया। इस प्रकार उन्होंने एक प्रकार से अनेकान्तवाद का रास्ता साफ किया । भगवान् महावीर ने तत्तद्वादों के दोष और गुण दोनों की ओर दृष्टि दी। प्रत्येक वाद का गुण-दर्शन तो उस वाद के स्थापक ने प्रथम से कराया ही था, उन विरोधीवादों में दोष-दर्शन भगवान् बुद्ध ने किया । तब भगवान् महावीर के सामने उन वादों के गुण और दोष दोनों आ गए। दोनों पर समान भाव से दृष्टि देने पर अनेकान्तवाद स्वतः फलित हो जाता है । भगवान् महावीर ने तत्कालीनवादों के गुण-दोषों की परीक्षा करके जितनी जिस वाद में सच्चाई थी, उसे उतनी ही मात्रा में स्वीकार करके सभी वादों का समन्वय करने का प्रयत्न किया। यही भगवान् महावीर का अनेकान्तवाद या विकसित विभज्यवाद है। भगवान् बुद्ध जिन प्रश्नों का उत्तर विधि रूप से देना नहीं चाहते थे, उन सभी प्रश्नों का उत्तर देने में अनेकान्तवाद का आश्रय करके भगवान् महावीर समर्थ हुए। उन्होंने प्रत्येक वाद के पीछे रही हुई दृष्टि को समझने का प्रयत्न किया, प्रत्येक वाद की मर्यादा क्या है, अमुक वाद का उत्थान होने में मूलतः क्या अपेक्षा होनी चाहिए, इस बात की खोज की ओर नयवाद के रूप में उस खोज को दार्शनिकों के सामने रखा । यही नयवाद अनेकान्तवाद का मूलाधार बन गया। अब मूल जैनागमों के आधार पर ही भगवान् के अनेकान्तवाद का दिग्दर्शन कराना उपयुक्त होगा। पहले उन प्रश्नों को लिया जाता है, जिनको कि भगवान् बुद्ध ने अव्याकृत बताया है । ऐसा करने से यह स्पष्ट होगा, कि जहाँ बुद्ध किसी एक वाद में पड़ जाने के भय से निषेधात्मक उत्तर देते हैं वहाँ भगवान् महावीर अनेकान्तवाद का आश्रय करके किस प्रकार विधि रूप उत्तर देकर अपना अपूर्व भार्ग प्रस्थापित करते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy