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आगम-युग का जैन-दर्शन •
करण भगवान् महावीर ने तत्कालीन अन्य दार्शनिकों के विचार के प्रकाश में किया है, वही उनकी दार्शनिक क्षेत्र में देन समझनी चाहिए। जीव का जन्म मरण होता है, यह बात नई नहीं थी। परमाणु के नाना कार्य बाह्य जगत में होते हैं और नष्ट होते हैं, यह भी स्वीकृत था। किन्तु जीव और परमाणु का कैसा स्वरूप माना जाए, जिससे उन भिन्न-भिन्न अवस्थाओं के घटित होते रहने पर भी जीव और परमाणु का उन अवस्थाओं के साथ सम्बन्ध बना रहे। यह और ऐसे अन्य प्रश्न तत्कालीन दार्शनिकों के द्वारा उठाए गए थे और उन्होंने अपना-अपना स्पष्टीकरण भी किया था। इन नये प्रश्नों का भगवान् महावीर ने जो स्पष्टीकरण किया है, वही उनकी दार्शनिक क्षेत्र में नई देन है। अतएव आगमों के आधार पर भगवान् महावीर की उस देन पर विचार किया जाए तो बाद के जैन दार्शनिक विकास की मूल-भित्ति क्या थी, यह सरलता से स्पष्ट हो सकेगी।
ईसा के बाद होने वाले जैनदार्शनिकों ने जैनतत्त्वविचार को अनेकान्तवाद के नाम से प्रतिपादित किया है और भगवान् महावीर को उस वाद का उपदेशक बताया है। उन आचार्यों का उक्त कथन कहाँ तक ठीक है और प्राचीन आगमों में अनेकान्तवाद के विषय में क्या कहा गया है, उसका दिग्दर्शन कराया जाए, तो यह सहज ही में मालूम हो जाएगा कि भगवान् महावीर ने समकालीन दार्शनिकों में अपनी विचार-धारा किस ओर बहाई और वाद में होने वाले जैन आचार्यों ने विचार-धारा को लेकर उसमें क्रमशः कैसा विकास किया।
चित्र-विचित्र पक्षयुक्त पुंस्कोकिल का स्वप्न :
भगवान महावीर को केवलज्ञान होने के पहले जिन दश महास्वप्नों का दर्शन हुआ था, उनका उल्लेख भगवती मूत्र में आया है । उनमें तीसरा स्वप्न इस प्रकार है
५ लघीयस्त्रय का० ५०. * भगवती शतक १६ उद्देशक ६..
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