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________________ प्रमेय-साण्ड ५३ एगं च णं महं चित्त-विचित्त-पक्खगं पुंसकोइलगं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्ध अर्थात्-एक बड़े चित्र-विचित्र पांखवाले पुंस्कोकिल को स्वप्न में देखकर वे प्रतिबुद्ध हुए। इस महास्वप्न का फल बताते हुए कहा गया है कि “जणं समणे भगवं महावीरे एगं महं चित्त-विचित्तं जाव पडिबुद्ध तण्णं समणे भगवं महावीरे विचित्तं ससमयपरसमइयं दुवालसंगं गणिपिडगं आघवेति पनवेति परवेति....." अर्थात् उस स्वप्न का फल यह है कि भगवान् महावीर विचित्र ऐसे स्व-पर सिद्धान्त को बताने वाले द्वादशांग का उपदेश देंगे । प्रस्तुत में चित्र-विचित्र शब्द खास ध्यान देने योग्य है। बाद के जैन दार्शनिकों ने जो चित्रज्ञान और चित्रपट को लेकर बौद्ध और नैयायिक-वैशेषिक के सामने अनेकान्तवाद को सिद्ध किया है, वह इस चित्रविचित्र शब्द को पढ़ते समय याद आ जाता है। किन्तु प्रस्तुत में उसका सम्बन्ध न भी हो, तब भी पंस्कोकिल की पखि को चित्रविचित्र कहने का और आगमों को विचित्र विशेषण देने का खास तात्पर्य तो यही मालूम होता है कि उनका उपदेश अनेक रंगी-अनेकान्त वाद माना गया है। विशेषण से सूत्रकार ने यही ध्वनित किया है, ऐसा निश्चय करना तो कठिन है, किन्तु यदि भगवान के दर्शन की विशेषता और प्रस्तुत चित्रविचित्र विशेषण का कुछ मेल बिठाया जाए, तब यही संभावना की जा सकती है कि वह विशेषण साभिप्राय है और उससे सूत्रकार ने भगवान् के उपदेश की विशेषता अर्थात् अनेकान्तवाद को ध्वनित किया हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है । विभज्यवाद : सूत्रकृतांग-सूत्र में भिक्षु कैसी भाषा का प्रयोग करे, इस प्रश्न के प्रसंग में कहा गया है कि विभज्यवाद का प्रयोग करना चाहिए । विभज्यवाद का मतलब ठीक समझने में हमें जैन टीका ग्रंथों के अतिरिक्त बौद्ध ग्रंथ भी सहायक होते हैं । बौद्ध मज्झिमनिकाय (सुत्त. ६६) में शुभमाणवक के प्रश्न के उत्तर में भगवान् बुद्ध ने कहा कि- "हे माणवक ! मैं यहाँ विभज्यवादी हूँ. एकांशवादी नहीं।" उसका प्रश्न था कि मैंने सुन रखा है कि गृहस्थ ही आराधक होता है, प्रबजित आराधक नहीं 3७ "भिक्खू विभज्जवायं च वियागरेज्जा"-सुत्रकृतांग १.१४.२२. Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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