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प्रमेय खण्ड
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अन्य मतों का निराकरण किया गया है वे ये हैं९-१ काल, २ स्वभाव, ३ नियति, ४ यदृच्छा, ५ भूत, ६ पुरुष, ७ इन सभी का संयोग, ८ आत्मा।
उपनिषदों में इन नाना वादों का निर्देश है। अतएव उस समयपर्यन्त इन वादों का अस्तित्व था ही, इस बात को स्वीकार करते हुए भी प्रो० रानडे का कहना है कि उपनिषद्कालीन दार्शनिकों की दर्शन क्षेत्र में जो विशिष्ट देन है, वह तो आत्मवाद है ।।
__ अन्य सभी वादों के होते हुए भी जिस वाद ने आगे की पीढ़ी के ऊपर अपना असर कायम रखा और जो उपनिषदों का विशेष तत्त्व समझा जाने लगा, वह तो आत्मवाद ही है । उपनिषदों के ऋषि अन्त में इसी नतीजे पर पहुँचे कि विश्व का मूल कारण या परम तत्त्व आत्मा हो है । परमेश्वर को भी, जो संसार का आदि कारण है, श्वेताश्वतर में 'आत्मस्थ' देखने को कहा है
"तमात्मस्थं येनुपश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाश्वतं मैतरेषाम्" ६.१२.
छान्दोग्य का निम्न वाक्य देखिए
"अथातः आत्मादेशः आत्मवापस्तात्, आत्मोपरिष्टात्, आत्मा पश्चात्, आत्मा पुरस्तात्, आत्मा दक्षिणतः, आत्मोत्तरतः आत्मबेदं सर्वमिति । स वा एष एवं पश्यन् एवं मन्वान एवं विजाननात्मरतिरात्मक्रीड आत्ममिथुन आत्मानन्द: स स्वराद् भवति तस्य सर्वेषु लोकेषु कामचारो भवति ।" छान्दो० ७.२५ ।
बृहदारण्यक में उपदेश दिया गया है कि
"न वा अरे सर्वस्य कामाय सर्व प्रियं भवति आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति । आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रेय्यात्मनो वा अरे दर्शनेन श्रवणेन मत्या विज्ञानेनेदं सर्व विदितम् ।" २.४.५ ।
उपनिषदों का ब्रह्म और आत्मा भिन्न नहीं, किन्तु आत्मा ही ब्रह्म है-'अयमात्मा ब्रह्म'—बृहदा २.५.१६.
इस प्रकार उपनिषदों का तात्पर्य आत्मवाद में है, ऐसा जो कहा है, वह उस काल के दार्शनिकों का उस वाद के प्रति जो विशेष पक्षपात
१९. "कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्यम् ।
संयोग एषां न त्वात्मभावादात्माप्यनीशः सुखदुःखहेतोः ॥"-श्वेता० १.२. २० Constructive Survey of Upanishadas ch. V. P. 246.
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