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आगम-युग का जैन-दर्शन
था, उसी को लक्ष्य में रखकर है। परम तत्त्व आत्मा या ब्रह्म को उपनिषदों के ऋषियों ने शाश्वत, सनातन, नित्य, अजन्य, ध्रुव माना है ।२१
इसी आत्म-तत्त्व या ब्रह्म-तत्त्व को जड़ और चेतन जगत् का उपादान कारण, निमित्त कारण या अधिष्ठान मान कर दार्शनिकों ने केवलाद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत या शुद्धाद्वैत का समर्थन किया है । इन सभी वादों के अनुकूल वाक्यों की उपलब्धि उपनिषदों में होती है । अतः इन सभी वादों के बीज उपनिषदों में हैं, ऐसा मानना युक्तिसंगत ही है ।२२
उपनिषत्काल में कुछ लोग महाभूतों से आत्मा का समुत्थान और महाभूतों में ही आत्मा का लय मानने वाले थे, किन्तु उपनिपत्कालीन आत्मवाद के प्रचण्ड प्रवाह में उस वाद का कोई खास मूल्य नहीं रह गया। इस बात की प्रतीति बृहदारण्यकनिर्दिष्ट याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी के संवाद से हो जाती है । मैत्रेयी के सामने जब याज्ञवल्क्य ने भूतवाद की चर्चा छेड़ कर कहा कि "विज्ञानघन इन भूतों से ही समुत्थित होकर इन्हीं में लीन हो जाता है, परलोक या पुनर्जन्म जैसी कोई बात नहीं है"२३ तब मैत्रेयी ने कहा कि ऐसी वात कह कर हमें मोह में मत डालो। इससे स्पष्ट है कि आत्मवाद के सामने भूतवाद का कोई मूल्य नहीं रह गया था।
प्राचीन उपनिषदों का काल प्रो० रानडे ने ई० पू० १२०० से ६०० तक का माना है यह काल भगवान् महावीर और बुद्ध के पहले का है । अत: हम कह सकते हैं कि उन दोनों महापुरुषों के पहले भारतीय दर्शन की स्थिति जानने का साधन उपनिषदों से बढ़कर अन्य कुछ हो नहीं सकता। अतएव हमने ऊपर उपनिषदों के आधार से ही
२१ कठो० १.२.१८. २.६.१. १.३.१५. २.४.२. २.१५. मुण्डको० १.६. इत्यादि ।
२२ Constru. p. 205--232. 23 "विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति न प्रेत्य संज्ञा
अस्तीत्यरे ब्रवीमोति होवाच याज्ञवल्क्यः ।" बृहदा० २.४.१२. २४ Constru. p. 13
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