________________
४२
भागम-युग का जैन-दर्शन
पिप्पलाद ऋषि के मत से प्रजापति से सृष्टि हुई है । किन्तु बृहदारण्यक में आत्मा को मूल कारण मानकर उसी में से स्त्री और पुरुष की उत्पत्ति के द्वारा क्रमशः संपूर्ण विश्व की सृष्टि मानी गई है। ऐतरेयोपनिषद् में भी सृष्टिक्रम में भेद होने पर भी मूल कारण तो आत्मा ही माना गया है। यही बात तैत्तिरीयोपनिषद् के विषय में भी कही जा सकती है। किन्तु इसकी विशेषता यह है कि आत्मा को उत्पत्ति का कर्ता नहीं, बल्कि कारण मात्र माना गया है । अर्थात् अन्यत्र स्पष्ट रूप से आत्मा या प्रजापति में सृष्टिकर्तृत्व का आरोप है, जब कि इसमें आत्मा को केवल मूल कारण मानकर पंचभूतों की संभूति उस आत्मा से हुई है, इतना ही प्रतिपाद्य है। मुण्डकोपनिषद् में जड़ और चेतन सभी की उत्पत्ति दिव्य, अमूर्त और अज ऐसे पुरुष से मानी गई है । यहाँ भी उसे कर्ता नहीं कहा । किन्तु श्वेताश्वतरोपनिषद् में विश्वाधिप देवाधिदेव रुद्र ईश्वर को ही जगत्कर्ता माना गया है और उसी को मूल कारण भी कहा गया है ।
उपनिपदों के इन वादों को संक्षेप में कहना हो तो कहा जा सकता है कि किसी के मत से असत् से सत् की उत्पत्ति होती है, किसी के मत से विश्व का मूल तत्त्व सत् है, किसी के मत से वह सत् जड़ है और किसी के मत में वह तत्त्व चेतन है ।
एक दूसरी दृष्टि से भी कारण का विचार प्राचीन काल में होता था। उसका पता हमें श्वेताश्वतरोपनिषद् से चलता है। उसमें ईश्वर को ही परम तत्त्व और आदि कारण सिद्ध करने के लिए जिन
१3 प्रश्नो० १.३-१-३. १४ बृहदा० १.४.१-४. १५ ऐतरेय १.१-३. १६ तैत्तिरी० २.१. १० मुण्ड० २.१.२-६. १८ श्वेता० ३.२. । ६.६.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org