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________________ आगम - साहित्य की रूप-रेखा हटाकर मात्र साहित्यिक भाषा बना दिया था । तब तत्कालीन अपभ्रंश अर्थात् प्राचीन गुजराती भाषा में बालावबोधों की रचना हुई । इन्हें 'टबा' कहते हैं । ऐसे बालावबोधों की रचना करनेवाले अनेक हुए हैं, किन्तु १८वीं सदी में होने वाले लोंकागच्छके धर्मसिंह मुनि विशेष रूपसे उल्लेखनीय हैं । क्योंकि इनकी दृष्टि प्राचीन टीकाओं के अर्थ को छोड़कर कहीं-कहीं स्वसंप्रदाय संमत अर्थ करने की भी रही है । आगम साहित्य की यह बहुत ही संक्षिप्त रूप-रेखा प्रस्तुत की गई है । फिर भी इसमें आगमों के विषय में मुख्य-मुख्य तथ्यों का वर्णन कर दिया गया है, जिससे कि आगे चल कर आगमों के गुरु गम्भीर दार्शनिक सत्य एवं तथ्य को समझने में सुगमता हो सकेगी। इससे दूसरा लाभ यह भी होगा, कि अध्येता आगमों के ऐतिहासिक मूल्यों के महत्त्व को हृदयंगम कर सकेंगे और उनके दार्शनिक सिद्धान्तों की पृष्ठभूमि को भलीभाँति समझ सकेंगे । दर्शन का विकास-क्रम : जैन दर्शनशास्त्र के विकास क्रम को चार युगों में विभक्त किया जा सकता है । १. आगम-युग २. अनेकान्तस्थापन-युग ३. प्रमाणशास्त्रव्यवस्था-युग ४. नवीनन्याय - युग | युगों के लक्षण युगों के नाम से ही स्पष्ट हैं । कालमर्यादा इस प्रकार रखी जा सकती है-आगम-युग भगवान महावीर के निर्वाण से लेकर करीब एक हजार वर्ष का है (वि० पू० ४७० - वि० ५०० ), दूसरा वि० पाँचवीं से आठवीं शताब्दी तक; तीसरा आठवीं से सत्रहवीं तक, और चौथा अठारहवीं से आधुनिक समय पर्यन्त । इन सभी युगों की विशेषताओं का मैंने अन्यत्र संक्षिप्त विवेचन किया है । दूसरे, तीसरे और चौथे युग की दार्शनिक संपत्ति के विषय में पूज्य पण्डित सुखलालजी, पं० कैलाशचन्द्रजी, पं० महेन्द्रकुमारजी आदि विद्वानों ने ३५ प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थ में मेरा लेख पृ० ३०३, तथा जैन संस्कृति-संशोधन मंडल पत्रिका १. ५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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