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________________ ३६ आगम-युग का जैन-दर्शन पर्याप्त मात्रा में प्रकाश डाला है, किन्तु आगम-युग के साहित्य में जैन दर्शन के प्रमेय और प्रमाण तत्त्व के विषय में क्या क्या मन्तव्य हैं, उनका संकलन पर्याप्त मात्रा में नहीं हुआ है । अतएव यहाँ जैन आगमों के आधार से उन दो तत्त्वों का संकलन करने का प्रयत्न किया जाता है । यह होने से ही अनेकान्त-युग के और प्रमाणशास्त्र व्यवस्था-युग के विविध प्रवाहों का उद्गम क्या है, आगम में वह है कि नहीं, है तो कैसा है यह स्पष्ट होगा । इतना ही नहीं, बल्कि जैन आचार्यों ने मूल तत्त्वों का कैसा पल्लवन और विकसन किया तथा किन नवीन तत्त्वों को तत्कालीन दार्शनिक विचार-धारा में से अपना कर अपने तत्त्वों को व्यवस्थित किया, यह भी स्पष्ट हो सकेगा । आगम-युग के दार्शनिक तत्त्वों के विवेचन में मैंने श्वेताम्बर प्रसिद्ध मूल आगमों का ही उपयोग किया है । दिगम्बरों के मूल पट्खण्डा गम आदि का उपयोग मैंने नहीं किया । उन शास्त्रों का दर्शन के साथ अधिक सम्बन्ध नहीं है । उन ग्रन्थों में जैन कर्म-तत्त्व का ही विशेष विवरण है । श्वेताम्बरों के निर्युक्ति आदि टीकाग्रन्थों का कहीं-कहीं स्पष्टीकरण के लिए उपयोग किया है, किन्तु जो मूल में न हो, ऐसी निर्युक्ति आदि की बातों को प्रस्तुत आगम युग के दर्शनं तत्त्व के निरूपण में स्थान नहीं दिया है। इसका कारण यह है, कि हम आगम साहित्य के दो विभाग कर सकते हैं । एक मूल शास्त्र का तथा दूसरा टीका- नियुक्ति भाष्य - चूर्णिका । प्रस्तुत में मूल का ही विवेचन अभीष्ट है । उपलब्ध निर्युक्तियों से यह प्रतीत होता है, कि उनमें प्राचीन नियुक्तियाँ समाविष्ट कर दी गई हैं । किन्तु सर्वत्र यह बताना कठिन है कि कितना अंग मूल प्राचीन नियुक्ति का है और कितना अंश भद्रबाहु का है । अतएव निर्युक्ति का अध्ययन किसी अन्य अवसर के लिए स्थगित रख कर प्रस्तुत में मूल आगम में विशेष कर अंग, उपांग और नन्दी - अनुयोग के आधार पर चर्चा की जायगी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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