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३४ आगम-युग का जन-दर्शन प्राकृत चूर्णियोंका प्रायः संस्कृतमें अनुवाद ही किया है। यत्र-तत्र अपने दार्शनिक ज्ञानका उपयोग करना भी उन्होंने उचित समझा है। इसलिए हम उनकी टीकाओं में सभी दर्शनोंकी पूर्वपक्ष रूपसे चर्चा पाते हैं। इतना ही नहीं, किन्तु जैनतत्त्वको दार्शनिक ज्ञान के बल से सुनिश्चितरूपमें स्थिर करने का प्रयत्न भी देखते हैं।
हरिभद्र के बाद शीलांकसूरि ने दशवीं शताब्दी में संस्कृतटीकाओं की रचना की। शीलांकके बाद प्रसिद्ध टीकाकार शान्त्याचार्य हुए। उन्होंने उत्तराध्ययनकी वृहत्टीका लिखी है । इसके बाद प्रसिद्ध टीकाकार अभयदेव हुए, जिन्होंने नव अंगों पर संस्कृतमें टीकाएँ रची। उनका जन्म वि० १०७२ में और स्वर्गवास विक्रम ११३५ में हुआ है। इन दोनों टीकाकारोंने पूर्व टीकाओंका पूरा उपयोग तो किया ही है, अपनी ओर से यत्र-तत्र नयी दार्शनिक चर्चा भी की है।
यहाँ पर मलधारी हेमचन्द्रका भी नाम उल्लेखनीय है । वे बारहवीं शताब्दीके विद्वान् थे। किन्तु आगमोंकी संस्कृत टीका करने वालोंमें सर्वश्रेष्ठ स्थान तो आचार्य मलयगिरिका ही है। प्राञ्जल भाषा दार्शनिक चर्चासे प्रचुर टीकाएँ यदि देखना हो, तो मलयगिरिको टीकाएँ देखनी चाहिए । उनकी टीका पढ़नेमें शुद्ध दार्शनिक ग्रन्थ पढ़नेका आनन्द आता है । जैनशास्त्रके कर्म, आचार, भूगोल, खगोल आदि सभी विषयोंमें उनकी कलम धारा-प्रवाहसे चलती है और विषयको इतना स्पष्ट करके रखती है, कि फिर उस विषयमें दूसरा कुछ देखने की अपेक्षा नहीं रहती । जैसे वैदिक परम्परामें वाचस्पति मिश्रने जो भी दर्शन लिया, तन्मय होकर उसे लिखा, उसी प्रकार जैन परम्परामें मलयगिरिने भी किया है । वे आचार्य हेमचन्द्रके समकालीन थे । अतएव उन्हें बारहवीं शताब्दीका विद्वान मानना चाहिए।
संस्कृत-प्राकृत टीकाओंका परिमाण इतना बड़ा था, और विषयोंकी चर्चा इतनी गहन-गहनतर होगई थी, कि बादमें यह आवश्यक समझा गया, कि आगमोंकी शब्दार्थ करनेवाली संक्षिप्त टीकाएँ की जाएँ। समयकी गतिने संस्कृत और प्राकृत भाषाओंको बोलचालकी भाषासे
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