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आगम-साहित्य की रूप-रेखा
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और भाष्य पद्यमय हैं और चूणि गद्यमय हैं,उपलब्ध नियुक्तियों का अधिकांश भद्रबाहु द्वितीय की रचना हैं। उनका समय विक्रम पांचवीं या छठी शताब्दी है । नियुक्तियोंमें भद्रबाहुने अनेक स्थलों पर दार्शनिक चर्चाएं बड़े सुन्दर ढंगसे की हैं । विशेषकर बौद्धों तथा चार्वाकोंके विषय में नियुक्ति में जहाँ कहीं भी अवसर मिला, उन्होंने अवश्य लिखा है। आत्मा का अस्तित्व उन्होंने सिद्ध किया है । ज्ञानका सूक्ष्म निरूपण तथा अहिंसाका तात्त्विक विवेचन किया है । शब्दके अर्थ करनेकी पद्धतिमें तो वे निष्णात थे ही। प्रमाण, नय और निक्षेप के विषय में लिखकर भद्रबाहु ने जैन दर्शनकी भूमिका पक्की की है।
किसी भी विषय की चर्चा का अपने समय तक का पूर्णरूप देखना हो, तो भाष्य देखना चाहिए। भाष्यकारोंमें प्रसिद्ध संघदासगणी और जिनभद्र हैं । इनका समय सातवीं शताब्दी है । जिनभद्रने विशेषावश्यक-भाष्य में आगमिक पदार्थोंका तर्क-संगत विवेचन किया है। प्रमाण, नय और निक्षेप की संपूर्ण चर्चा तो उन्होंने की ही है। इसके अलावा तत्त्वोंका भी तात्त्विक युक्तिसंगत विवेचन उन्होंने किया है । यह कहा जा सकता है, कि दार्शनिक चर्चा का कोई ऐसा विषय नहीं है, जिस पर जिनभद्रने अपनी कलम न चलाई हो ।
वृहत्कल्प भाष्यमें संघदासगणि ने साधुओंके आहार एवं विहारआदि नियमोंके उत्सर्ग-अपवाद मार्गकी चर्चा दार्शनिक ढंगसे की है। इन्होंने भी प्रसंगानुकूल ज्ञान, प्रमाण, नय और निक्षेप के विषयमें पर्याप्त लिखा है।
__ लगभग सातवीं-आठवीं शताब्दीकी चूणियाँ मिलती हैं। चूणिकारोंमें जिनदास महत्तर प्रसिद्ध हैं। इन्होंने नन्दीकी चूणिके अलावा और भी चूर्णियाँ लिखी हैं। चूर्णियों में भाष्यके ही विषयको संक्षेपमें गद्य रूपमें लिखा गया है। जातकके ढंगकी प्राकृत कथाएं इनकी विशेषता है।
जैन आगमों की सबसे प्राचीन संस्कृत टीका आचार्य हरिभद्र ने की है । उनका समय वि० ७५७ से ८५७ के बीचका है। हरिभद्र ने
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