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आगम-युग का जैम-दर्शन
प्रसिद्ध भी है । अतएव आचार्य ने द्रव्यार्थिक नय के हार नय के उपभेदरूप से विधिभंगरूप प्रथम अर में मत को स्थान दिया है ।
इस अर में विज्ञानवाद, अनुमान का नैरर्थक्य भिक विषयों की भी चर्चा की गई है, किन्तु उन सबके वार लिखने का यह स्थान नहीं है ।
( २ ) द्वितीय अर के उत्थान में मीमांसक ने उक्त विधिवाद या अपौरुषेय शास्त्र द्वारा क्रियोपदेश के समर्थन में अज्ञानवाद का जो आश्रय लिया है उसमें त्रुटि यह दिखलाई गई है कि यदि लोकतत्त्व पुरुषों के द्वारा अज्ञेय ही है तो अज्ञानवाद के द्वारा सामान्य विशेषादि एकान्तवादों का जो खण्डन किया गया वह उन तत्त्वों को जानकर या बिना जाने ? जान कर कहने पर स्ववचन विरोध है और बिना जाने तो खण्डन हो कैसे सकता है ? तत्त्व को जानना यह यदि निष्फल हो तो शास्त्रों में प्रतिपादित वस्तुतत्त्व का प्रतिषेध अज्ञानवादी ने जो किया वह भी क्यों ? शास्त्र क्रिया का उपदेश करता है यह मान लिया जाय तब भी जो संसेव्य विषय है उसके स्वरूप का ज्ञान तो आवश्यक ही है; अन्यथा इष्टार्थ में प्रवृत्ति ही कैसे होगी ? जिस प्रकार यदि वैद्यको औषधि के रस- वीर्य विपाकादि का ज्ञान न हो, तो वह अमुक रोग में अमुक औषधि कार्यकर होगी यह नहीं कह सकता वैसे ही अमुक याम करने से स्वर्ग मिलेगा यह भी बिना जाने कैसे कहा जा सकता है ? अतएव कार्यकारण के अतीन्द्रिय सम्बन्ध को कोई जानने वाला हो तब ही वह स्वर्गादि के साधनों का उपदेश कर सकता है, अन्यथा नहीं । इस दृष्टि से देखा जाय तो सांख्यादि शास्त्र या मीमांसक शास्त्र में कोई भेद नहीं किया जा सकता । लोकतत्त्व का अन्वेषण करने पर ही सांख्य या मीमांसक शास्त्र की प्रवृत्ति हो सकती है, अन्यथा नहीं । सांख्य शास्त्र की प्रवृत्ति के लिए जिस प्रकार लोकतत्त्व का अन्वेषण आवश्यक है उसी प्रकार क्रिया का उपदेश देने के लिए भी लोकतत्त्व का अन्वेषण आवश्यक है । अतएव मीमांसक के द्वारा अज्ञानवाद का आश्रय लेकर क्रिया का उपदेश करना अनुचित है । 'अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्ग
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एक भेद व्यवमीमांसक के इस
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आदि कई प्रारं विषय में ब्योरे -
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