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________________ प्राचार्य मल्लवादी का नयचक्र ३१३ प्रतिबद्ध हैं । जो अज्ञान विरोधी ज्ञान है वह भी अवबोधरूप होने से संशयादि के समान ही है अर्थात् उसका भी अज्ञान से वैशिष्ट्य सिद्ध नहीं है । इस मत के पुरस्कर्ता के वचन को उद्धृत किया गया है कि " को ह्य ेतद् वेद ? किं वा एतेन ज्ञातेन ?” यह वचन प्रसिद्ध नासदीय सूक्त के आधार पर है । जिसमें कहा गया है – “को अद्धा वेद क इह प्रवोचन् कुत आजाता कुत इयं विसृष्टि: । यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन् सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद ।। ६-७ ।। " टीकाकार सिंहगणि ने इसी मत के समर्थन में वाक्यपदीय की कारिका" उद्धृत की है जिसके अनुसार भर्तृ - हरि का कहना है कि अनुमान से किसी भी वस्तु का अंतिम निर्णय हो नहीं सकता । जैनग्रन्थों में दर्शनों को अज्ञानवाद, क्रियावाद, प्रक्रियावाद और विनयवादों में जो विभक्त किया गया है उसमें से यह प्रथम वाद है, यह टीकाकार ने स्पष्ट किया है तथा आगम के कौन से वाक्य से यह मत संबद्ध है यह दिखाने के लिए आचार्य मल्लवादी ने प्रमाणरूप से भगवती का निम्न वाक्य उद्धृत किया है- " आता भंते णाणे अण्णाणे ? गोतमा, णाणे नियमा आता, आता पुण सिया णाणे, सिया अण्णाणे" भगवती १२. ३. ४६७ । इस नय का तात्पर्य यह है कि जब वस्तुतत्त्व पुरुष के द्वारा जाना ही नहीं जा सकता, तब अपौरुषेय शास्त्र का आश्रय तत्त्वज्ञान के लिए नहीं, किन्तु क्रिया के लिए करना चाहिए । इस प्रकार इस अज्ञानवाद को वैदिक कर्मकाण्डी मीमांसक मत के रूप में फलित किया गया है। मीमांसक सर्वशास्त्र का या वेद का तात्पर्य क्रियोपदेश में मानता है । सारांश यह है कि शास्त्र का प्रयोजन यह बताने का है कि यदि आप की कामना अमुक अर्थ प्राप्त करने की है तो उसका साधनं अमुक क्रिया है । अतएक शास्त्र क्रिया का उपदेश करता है । जिसके अनुष्ठान से आप की फलेच्छा पूर्ण हो सकती है । यह मीमांसक मत विधिवाद के नाम से २५ ' यत्नेनानुमितोऽप्यर्थः कुशलं रनुमातृभिः । श्रभियुक्ततरंरन्यै रन्यथैवोपपाद्यते ॥' - वाक्यपदीय १.३४. www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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