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आचार्य मल्लवादी का नयचक्र
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इसी बात का समर्थन-आचार्य जिनभद्र ने भी किया है । उनका कहना है कि नय जब तक पृथक-पृथक हैं, तब तक मिथ्याभिनिवेश के कारण विवाद करते हैं । यह मिथ्याभिनिवेश नयों का तब ही दूर होता है जब उन सभी को एक साथ बिठा दिया जाय। जब तक अकेले गाना हो तब तक आप कैसा ही राग अलापें यह आप की मरजी की बात है; किन्तु समूह में गाना हो तब सब के साथ सामंजस्य करना ही पड़ता है। अनेकान्तवाद विवाद करनेवाले नयों में या विभिन्न दर्शनों में इसी सामञ्जस्य को स्थापित करता है, अतएव सर्वनय का समूह हो कर भी जैनदर्शन अत्यन्त निरवद्य है, निर्दोष है। सर्वदर्शन-संग्राहक जैनदर्शन :
यह बात हुई सामान्य सिद्धान्त के स्थापन की, किन्तु इस प्रकार सामान्य सिद्धान्त स्थिर करके भी अपने समय में प्रसिद्ध सभी नयवादों को-सभी दर्शनों को जैनों के द्वारा माने गए प्राचीन दो नयों में-द्रव्याथिक और पर्यायाथिक में घटाने का कार्य आवश्यक और अनिवार्य हो जाता है । आचार्य सिद्धसेन ने प्रधान दर्शनों का समन्वय कर उस प्रक्रिया का प्रारम्भ भी कर दिया है । और कह दिया है कि सांख्यदर्शन द्रव्यार्थिक नय को प्रधान मान कर, सौगतदर्शन पर्यायाथिक को प्रधान मान कर और वैशेषिक दर्शन उक्त दोनों नयों को विषयभेद से प्रधान मान कर प्रवत है१२ । किन्तु प्रधान-अप्रधान सभी वादों को नयवाद में यथास्थान बिठा कर सर्वदर्शनसमूहरूप अनेकान्तवाद है, इसका प्रदर्शन बाकी ही था। इस कार्य को नयचक्र के द्वारा पूर्ण किया गया है । अत एव अनेकान्तवाद वस्तुतः सर्वदर्शन-संग्रहरूप है इस तथ्य को सिद्ध करने का श्रेय यदि किसी को है तो वह नयचक्र को ही है, अन्य को नहीं ।
मैंने अन्यत्र सिद्ध किया है कि भगवान् महावीर ने अपने समय के दार्शनिक मन्तव्यों का सामञ्जस्य स्थापित करके अनेकान्तवाद की स्था
११ “एवं विवयन्ति नया मिच्छाभिनिवेसनो परोप्परो ।
इयमिह सव्वनयमयं जिणमयमणवजमच्चन्तं ॥" विशेषावश्यकभाष्य गा. ७२. । १२ सन्मति ३. ४८, ४६ ।
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