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३०० भागम-युग का जैन-दर्शन दर्शन और नय:
आचार्य सिद्धसेन ने नयों के विषय में स्पष्ट ही कहा है कि प्रत्येक नय अपने विषय की विचारणा में सच्चे होते हैं, किन्तु पर नयों की विचारणा में मोघ-असमर्थ होते हैं । जितने वचनमार्ग हैं उतने ही नयवाद होते हैं और जितने नयवाद हैं उतने ही पर दर्शन हैं । नयवाद को अलग-अलग लिया जाय तब वे मिथ्या हैं; क्योंकि वे अपने पक्ष को ही ठीक समझते हैं, दूसरे पक्ष का तो निरास करते हैं । किन्तु वस्तु का पाक्षिक दर्शन तो परिपूर्ण नहीं हो सकता; अतएव उस पाक्षिक दर्शन को स्वतन्त्र रूप से मिथ्या ही समझना चाहिए, किन्तु सापेक्ष हो तब ही सम्यग् समझना चाहिए । अनेकान्तवाद निरपेक्षवादों को सापेक्ष बनाता है, यही उसका सम्यक्त्व है । नय पृथक् रह कर दुर्नय होते हैं, किन्तु अनेकान्तवाद में स्थान पाकर वे ही सुनय बन जाते हैं; अतएव सर्व मिथ्यावादों का समूह हो कर भी अनेकान्तवाद सम्यक् होता है। आचार्य सिद्धसेन ने पृथक्-पृथक् वादों को रत्नों की उपमा दी है । पृथक्पृथक् वैदूर्य आदि रत्न कितने ही मूल्यवान् क्यों न हों वे न तो हार की शोभा ही को प्राप्त कर सकते हैं और न हार कहला सकते हैं । उस शोभा को प्राप्त करने के लिए एक सूत्र में उन रत्नों को बँधना होगा। अनेकान्तवाद पृथक्-पृथक् वादों को सूत्रबद्ध करता है और उनकी शोभा को बढ़ाता है । उनके पार्थक्य को या पृथक् नामों को मिटा देता है और जिस प्रकार सब रत्न मिलकर रत्नावली इस नये नाम को प्राप्त करते हैं, वैसे सब नयवाद अपने-अपने नामों को खो कर अनेकान्तवाद ऐसे नये नाम को प्राप्त करते हैं । यही उन नयों का सम्यक्त्व है।'
१ "णियवयरिणज्जसच्चा सम्वनया परवियालणे मोहा"-सन्मति. १. २८.
"जावइया वयरवहा तावइया चेव होंति नयवाया। जावइया गयवाया तावइया चेव परसमया ॥"
-सन्मति ३. ४७ ८ सन्मति. १. १३ और. २१. १ 'जेण दुवे एगंता विभज्जमाणा प्रणेगन्तो ॥' सन्मति १. १४ । १. २५ । ० सन्मति १. २२-२५ ।
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