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________________ श्राचर्य मल्लवावी का नयचक्र २६६ की तरह विज्ञानाद्वैत और शून्याद्वैत जैसे वादों को स्वीकार करते हैं । जैनदर्शन भी परिणामवादी परंपरा का विकसित रूप है । जैनदार्शनिकों ने उपर्युक्त घात - प्रत्याघातों का तटस्थ होकर अवलोकन किया है और अपने अनेकान्तवाद की ही पुष्टि में उसका उपयोग किया है, यह तो किसी भी दार्शनिक से छिपा नहीं रह सकता है । किन्तु यहाँ देखना यह है कि उपलब्ध जैनदार्शनिक साहित्य में ऐसा कौनसा ग्रन्थ है जो सर्वप्रथम दार्शनिकों के घातप्रत्याघातों को आत्मसात् करके उसका उपयोग अनेकांत के स्थापन में ही करता है । I प्राचीन जैन दार्शनिक साहित्य सर्जन का श्रेय सिद्धसेन और समन्तभद्र को दिया जाता है । इन दोनों में कौन पूर्व है कौन उत्तर है इसका सर्वमान्य निर्णय अभी हुआ नहीं है । फिर भी प्रस्तुत में इन दोनों की कृतियों के विषय में इतना ही कहना है कि वे दोनों अपने-अपने ग्रन्थ में अनेकान्त का स्थापन करते हैं अवश्य, किन्तु दोनों की पद्धति यह है कि परस्पर विरोधी वादों में दोष बताकर अनेकान्त का स्थापन वे दोनों करते हैं । विरोधी वादों के पूर्वपक्षों को या पूर्वपक्षीय वादों की स्थापना को उतना महत्त्व या अवकाश नहीं देते जितना उनके खण्डन को । अनेकान्तवाद के लिए जितना महत्त्व उस उस वाद के दोषों का या असंगति का है उतना महत्त्व बल्कि उससे अधिक महत्त्व उस-उस वाद के गुणों का या संगति का भी है और गुणों का दर्शन उस उस वाद की स्थापना के बिना नहीं होता है । इस दृष्टि से उक्त दोनों आचार्यों के ग्रन्थ पूर्ण हैं । अतएव प्राचीनकाल के ग्रन्थों में यदि अपने समय तक के सब दार्शनिक मन्तव्यों की स्थापनाओं के संग्रह का श्रेय किसी को है तो वह नयचक्र और उसकी टीका को ही मिल सकता है । अन्य को नहीं । भारतीय समग्र दार्शनिक ग्रन्थों में भी इस सर्वसंग्रह और सर्वसमालोचन की दृष्टि से यदि कोई प्राचीनतम ग्रन्थ ही है । इस दृष्टि से इस ग्रन्थ का महत्त्व इसलिए भी ल-कवलित बहुत से ग्रन्थ और मतों का संग्रह और ग्रन्थ में प्राप्त है, जो अन्यत्र दुर्लभ है । है, काल Jain Education International For Private & Personal Use Only तो वह नयचक्र बढ़ जाता है कि समालोचन इसी www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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