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________________ श्रागमोत्तर जैन-दर्शन . उनको रत्नावली हार नहीं कहा जाता, किन्तु वे ही किसी एक सूत्र में सुव्यवस्थित हो जाते हैं, तब रत्नावली हार की संज्ञा को प्राप्त करते हैं । इसी प्रकार नयवाद भी जब तक अपने-अपने मत का ही समर्थन करते हैं और दूसरों के निराकरण में ही तत्पर रहते हैं, वे सम्यग्दर्शन नाम के योग्य नहीं । किन्तु अनेकान्तवाद, जो कि उन नयवादों के समूह रूप है, सम्यग्दर्शन है । क्योंकि अनेकान्तवाद में सभी नयवादों को वस्तु-दर्शन में अपना-अपना स्थान दिया गया है, वे सभी नयवाद एकसूत्रबद्ध हो गए हैं, उनका पारस्परिक विरोध लुप्त हो गया है ( सन्मति १.२२ – २५ ), अतएव अनेकान्तवाद वस्तु का सम्पूर्ण दर्शन होने से सम्यग्दर्शन है । इस प्रकार हम देखते हैं, कि सिद्धसेन ने अनेक युक्तियों से अनेकान्तवाद को स्थिर करने की चेष्टा सन्मति तर्क में की है । जैन न्यायशास्त्र की आधार - शिला : जैसे दिग्नाग ने बौद्धसंगत विज्ञानवाद और एकान्त क्षणिकता को सिद्ध करने के लिए पूर्व परम्परा में थोड़ा बहुत परिवर्तन करके बौद्ध प्रमाणशास्त्र को व्यवस्थित रूप दिया, उसी प्रकार सिद्धसेन ने भी न्यायावतार में जैन न्यायशास्त्र की नींव न्यायावतार की रचना करके रखी १९६ । जैसे दिग्नाग ने अपनी पूर्व परंपरा में परिवर्तन भी किया है, उसी प्रकार न्यायावतार में भी सिद्धसेन ने पूर्व परम्परा का सर्वथा अनुकरण न करके अपनी स्वतन्त्र बुद्धि एवं प्रतिभा से काम लिया है । न्यायावतार की तुलना करते हुए मैंने न्यायावतार की रचना का आधार क्या है ? उसका निर्देश, उपलब्ध सामग्री के आधार पर, यत्रतत्र किया है। उससे इतना तो सष्ट है, कि सिद्धसेन ने जैन दृष्टिकोण को अपने सामने रखते हुए भी लक्षण - प्रणयन में दिग्नाग के ग्रन्थों का पर्याप्त मात्रा में उपयोग किया है और स्वयं सिद्धसेन के लक्षणों २७५ १९६ विशेष विवेचन के लिए देखो, पण्डित सुखलालजी कृत न्यायावतार विवेचन की प्रस्तावना | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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