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________________ २७४ - प्रागम-युग का जैन-दर्शन जं काविलं दरिसणं एवं दव्यट्ठियस्स वत्तव्वं । सुद्धोषणतरणअस्स उ परिसुद्धो पज्जवविअप्पो ॥ दोहिं वि गयेहि णीयं सत्थमुलूएण तहवि मिच्छत्त। जं सविसअप्पहाणतणेण अण्णोण्णनिरवेक्खा ।" -सन्मति० ३.४७-४६ सिद्धसेन ने कहा है, कि सभी नयवाद, सभी दर्शन मिथ्या हैं, यदि वे एक दूसरे को परस्पर अपेक्षा न करते हों और अपने मत को ही सर्वथा ठीक समझते हों । संग्रहनयावलम्बी सांख्य या पर्यायनयावलम्बी बौद्ध अपनी दृष्टि से वस्तु को नित्य या अनित्य कहें, तब तक वे मिथ्या नहीं, किन्तु सांख्य जब यह आग्रह रखे, कि वस्तु सर्वथा नित्य ही है और वह किसी भी प्रकार अनित्य हो ही नहीं सकती, या बौद्ध यदि यह कहे कि वस्तु सर्वथा क्षणिक ही है, वह किसी भी प्रकार से अक्षणिक हो ही नहीं सकती, तब सिद्धसेन का कहना है, कि उन दोनों ने अपनी मर्यादा का अतिक्रमण किया है, अतएव वे दोनों मिथ्यावादी हैं (सन्मति १.२८) । सांख्य की दृष्टि संग्रहावलम्बी है, अभेदगामो है । अतएव वह वस्तु को नित्य कहे, यह स्वाभाविक है, उसकी वही मर्यादा है, और बौद्ध पर्यायानुगामी या भेददृष्टि होने से वस्तु को क्षणिक या अनित्य कहे, यह भी स्वाभाविक है, उसकी वही मर्यादा है। किन्तु वस्तु का सम्पूर्ण दर्शन न तो केवल द्रव्य-दृष्टि में पर्यवसित है और न पर्याय दृष्टि में (सन्मति १०.१२, १३); अतएव सांख्य या बौद्ध को परस्पर मिथ्यावादी कहने का स्वातन्त्र्य नहीं। नानावाद या दर्शन अपनी-अपनी दृष्टि से वस्तू-तत्व का दर्शन करते हैं, इसलिए नयवाद कहे जाते हैं। किन्तु वे तो परमत के निराकरण में भी तत्पर हैं, इसलिए मिथ्या हैं (सन्मति १.२८) । द्रव्याथिक नय सम्यग् है, किन्तु तदवलम्बी सांख्यदर्शन मिथ्या है, क्योंकि उसने उस नय का आश्रय लेकर एकान्त नित्य पक्ष का अवलम्बन लिया। इसी प्रकार पर्यायनय के सम्यक् होते हुए भी यदि बौद्ध उसका आश्रय लेकर एकान्त अनित्य पक्ष को ही मान्य रखे, तब वह मिथ्यावाद बन जाता है। इसीलिए सिद्धसेन ने कहा है, कि जैसे वैडूर्यमणि जब तक पृथक्-पृथक् होते हैं, वैडूर्यमणि होने के कारण कीमती होते हुए भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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