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मागम-युग का जेन-दर्शन
का उपयोग अनुगामी जैनाचार्यों ने अत्यधिक मात्रा में किया है, यह भी स्पष्ट है।
आगम युग के जैन दर्शन के पूर्वोक्त प्रमाण तत्व के विवरण से यह स्पष्ट है, कि आगम में मुख्यतः चार प्रमाणों का वर्णन आया है। किन्तु आचार्य उमास्वाति ने प्रमाण के दो भेद-प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे किए और उन्हीं दो में पांच ज्ञानों को विभक्त कर दिया। आचार्य सिद्धसेन ने भी प्रमाण तो दो ही रखे—प्रत्यक्ष और परोक्ष । किन्तु उनके प्रमाण-निरूपण में जैन परम्परा-संमत पांच ज्ञानों की मुख्यता नहीं। किन्तु लोकसंमत प्रमाणों की मुख्यता है । उन्होंने प्रत्यक्ष की व्याख्या में लौकिक और लोकोत्तर दोनों प्रत्यक्षों को समावेश कर दिया है और परोक्ष में अनुमान और आगम का। इस प्रकार सिद्धसेन ने आगम में मुख्यत: वणित चार प्रमाणों का नहीं, किन्तु सांख्य और प्राचीन बौद्धों का अनुकरण करके प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम का वर्णन किया है ।
न्यायशास्त्र या प्रमाणशास्त्र में दार्शनिकों ने प्रमाण, प्रमाता, प्रमेय और प्रमिति-इन चार तत्वों के निरूपण को प्राधान्य दिया है। आचार्य सिद्धसेन ही प्रथम जैन दार्शनिक हैं, जिन्होंने न्यायावतार जैसी छोटी-सी कृति में जैनदर्शन-संमत इन चारों तत्वों की व्याख्या करने का सफल व्यवस्थित प्रयत्न किया है। उन्होंने प्रमाण का लक्षण किया है,
और उसके भेद-प्रभेदों का भी लक्षण किया है। विशेषतः अनुमान के विषय में तो उसके हेत्वादि सभी अंग-प्रत्यंगों की संक्षेप में मार्मिक चर्चा
की है। - जैन न्यायशास्त्र की चर्चा प्रमाणनिरूपण में ही उन्होंने समाप्त
नहीं की, किन्तु नयों का लक्षण और विषय बताकर जैन न्यायशास्त्र की विशेषता की ओर भी दार्शनिकों का ध्यान खींचा है।
__इस छोटी-सी कृति में सिद्धसेन स्वमतानुसार न्यायशास्त्रोपयोगी प्रमाणादि पदार्थों की व्याख्या करके ही सन्तुष्ट नहीं हुए, किन्तु परमत का निराकरण भी संक्षेप में करने का उन्होंने प्रयत्न किया है । लक्षणप्रणयन में दिग्नाग जैसे बौद्धों का यत्र-तत्र अनुकरण करके भी उन्हीं के
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