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________________ २७० श्रागमयुग का जैन - दर्शन और कर्म, क्रिया भोग १८४ ; बद्धत्व - अबद्धत्व १८५ मोक्षोपयोगी लिंग १६६ बंध - विचार, सर्वज्ञत्व "एवं पुद्गल " आदि । 955 आचार्य सिद्धसेन दिवाकर : सिद्धसेन दिवाकर को 'सन्मति प्रकरण' की प्रस्तावना में ( पृ०४३) पण्डित सुखलाल जी और पण्डित बेचरदास जी ने विक्रम की पांचवी शताब्दी के आचार्य माने हैं । उक्त पुस्तक के अंग्रेजी संस्करण में मैंने सूचित किया था, कि धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्तिक आदि ग्रन्थ के प्रकाश में सिद्धसेन के समय को शायद परिवर्तित करना पड़े, पांचवी के स्थान में छठी-सातवीं शताब्दी में सिद्धसेन की स्थिति मानना पड़े । किन्तु अभी-अभी पण्डित सुखलाल जी ने सिद्धसेन के समय की पुनः चर्चा की है । उसमें उन्होंने सिद्ध किया है, कि सिद्धसेन को पांचवी शताब्दी का ही विद्वान् मानना चाहिए। उनका मुख्य तर्क है, कि पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि में सिद्धसेन की द्वात्रिंशिका का उद्धरण है । अतएव पांचवी के उत्तरार्ध से छठी के पूर्वार्ध तक में माने जाने वाले पूज्यपाद से पूर्ववर्ती होने के कारण सिद्धसेन को विक्रम पांचवी शताब्दी का ही विद्वान् मानना चाहिए । इस तर्क के रहते, अब सिद्धसेन के समय की उत्तरावधि पांचवी शताब्दी से आगे नहीं बढ़ सकती। उन्हें पांचवीं शताब्दी से अर्वाचीन नहीं माना जा सकता । १९५ वस्तुतः सिद्धसेन के समय की चर्चा के प्रसंग में न्यायावतारगत कुछ शब्दों और सिद्धान्तों को लेकर प्रो० जेकोबी ने यह सिद्ध करने की १८४ समय० ३८६ से । १८५ समय० १५१ । १८६ समय० ४४४ । १८७ प्रवचन २.६७ । १८८ नियम० १५८ । १८९ नियम० २६ । १९० 'श्री सिद्धसेन दिवाकरना समयनो प्रश्न' भारतीय विद्या वर्ष ३ पृ० १५२ १९१ सर्वार्थसिद्धि ७. १३ में सिद्धसेन की तीसरी द्वात्रिंशिका का १६ वाँ पद्य उद्धत है। Jain Education International. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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