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प्रागमोत्तर जन-दर्शन
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के लिए निश्चय नय का अवलम्बन है, किन्तु निश्चयनयावलम्बन ही कर्तव्य की इतिश्री नहीं है । उसके आश्रय से आत्मा के स्वरूप का बोध करके उसे छोड़ने पर ही तत्व का साक्षात्कार संभव है।
आचार्य के प्रस्तुत मत के साथ नागार्जुन के निम्न मत की तुलना करनी चाहिए
"शून्यता सर्वदृष्टीनां प्रोक्ता निःसरणं जिनः । येषां तु शून्यतादृष्टिस्तानसाध्यान् बभाषिरे ॥"
-माध्य० १३.८ शन्यमिति न वक्तव्यमशन्यमिति वा भवेत् । उभयं नोभयं चेति प्राप्त्यर्थ तु कथ्यते ॥"
-माध्य० २२.११ प्रसंग से नागार्जुन और प्राचार्य कुन्दकुन्द की एक अन्य बात भी तुलनीय है, जिसका निर्देश भी उपयुक्त है । प्राचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है
___"जह णवि सक्रमणज्जो अणज्जभासं विणा दु गाहेहूँ । तह ववहारेण विणा परमत्थुववेसणमसक्कं ॥"
-समयसार ८ ये ही शब्द नागार्जुन के कथन में भी हैं
"नान्यया भाषया म्लेच्छः शक्यो प्राहयितुं यथा। न लौकिकमते लोकः शक्यो प्राहयितुं तथा ॥"
-माध्य० पृ० ३७० आचार्य ने अनेक विषयों की चर्चा उक्त दोनों नयों के आश्रय से की है, जिनमें से कुछ ये हैं-ज्ञानादि गुण और आत्मा का सम्बन्ध, आत्मा और देह का सम्बन्ध, जीव और अध्यवसाय, गुणस्थान आदि सम्बन्ध, मोक्षमार्ग ज्ञानादि, आत्मा८२, कर्तृत्व, आत्मा
१ समय० ७,१६,३० से। १७ समयसार ३२ से। १८° समयसार ६१ से। १८१ पंचा० १६७ से । नियम १८ से । दर्शन प्रा० २० । १८२ समय० ६,१६ इत्यावि, नियम ४६ । १८3 समय० २४,९० मादि; नियम ०१८ ।
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