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प्रागमोत्तर जैन-दर्शन
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चेष्टा की थी,१९२ कि सिद्धसेन धर्मकीति के बाद हुए हैं ! प्रो० वैद्य ने भी उन्हीं का अनुसरण किया१९३ । कुछ विद्वानों ने न्यायावतार के नवम् श्लोक के लिए कहा, कि वह समन्तभद्रकृत रत्नकरण्ड का है, अतएव सिद्धसेन समन्त भद्र के बाद हए । इस प्रकार सिद्धसेन के समय के निश्चय में न्यायावतार ने काफी विवाद खड़ा किया है । अतएव न्यायावतार का विशेष रूप से तुलनात्मक अध्ययन करके निश्चयपूर्वक यह कहा जा सकता है, कि सिद्धसेन को धर्मकीर्ति के पहले का विद्वान् मानने में कोई समर्थ बाधक प्रमाण नहीं है । रत्नकरण्ड के विषय में तो अब प्रो० हीरालाल ने यह सिद्ध किया है, कि वह समन्तभद्रकृत नहीं है,१९४ फिर उसके आधार से यह कहना, कि सिद्धसेन समन्त भद्र के बाद हए, युक्तियुक्त नहीं हो सकता है।
अतएव पण्डित सुखलाल जी के द्वारा निर्णीत विक्रम की पांचवी शताब्दी में सिद्धसेन की स्थिति निर्बाध प्रतीत होती है। सिद्धसेन की प्रतिभा :
आचार्य सिद्धसेन के जीवन और लेखन के सम्बन्ध में 'सन्मति तर्क प्रकरणम्' के समर्थ सम्पादकों ने पर्याप्त मात्रा में प्रकाश डाला है१९५ । जैन दार्शनिक साहित्य की एक नयी धारा प्रवाहित करने में सिद्धसेन सर्व प्रथम हैं । इतना ही नहीं, किन्तु जैन साहित्य के भंडार में संस्कृत भाषा में काव्यमय तर्क-पूर्ण स्तुति-साहित्य को प्रस्तुत करने में भी सिद्धसेन सर्वप्रथम हैं । पण्डित सुखलालजी ने उनको प्रतिभा-मूर्ति कहा है, यह अत्युक्ति नहीं । सिद्धसेन का प्राकृत ग्रन्थ सन्मति देखा जाए, या उनकी
१९२ समराइच्चकहा, प्रस्तावना पृ० ३ । १९3 न्यायावतार प्रस्तावना पृ० १८ । १९४ अनेकान्त वर्ष० ८ किरण १-३ ।
१९", 'सन्मति प्रकरण' (गुजराती) की प्रस्तावना । उसी का अंग्रेजी-संस्करणजैन श्वे. कोन्फरन्स द्वारा प्रकाशित । 'प्रतिभामूति हुमा है, सिद्धसेन' -भारतीय विद्या तृतीय भाग पृ०६।
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