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________________ २५४ भागम-युग का जैन-दर्शन को ही सबसे प्रबल माना है, क्योंकि यदि मोह नहीं तो अन्य कोई दोष उत्पन्न ही नहीं होते १२५ । अतएव तत्त्व- ज्ञान से वस्तुतः मोह को निवृत्ति होने पर संसार निर्मूल हो जाता है। योगसूत्र में क्लेश-दोषों का वर्गीकरण प्रकारान्तर से है:२६, किन्तु सभी दोषों का मूल अविद्या-- मिथ्या ज्ञान एवं मोह में ही माना गया है। योगसूत्र के अनुसार क्लेशों से कर्माशय--पुण्यापुण्य-धर्माधर्म होता है१२९ और कर्माशय से उसका फल जाति-देह, आयु और भोग होता है। यही संसार है। इस संसार-चक्र को रोकने का एक ही उपाय है, कि भेद-ज्ञान से—विवेक ख्याति से अविद्या का नाश किया जाए । उसी से कैवल्य प्राप्ति होती है। सांख्यों की प्रकृति त्रिगुणात्मक है13१—सत्त्व, रजस् और तमोरूप है । दूसरे शब्दों में प्रकृति सुख, दुःख और मोहात्मक है, अर्थात् प्रीतिराग, अप्रीति-द्वेष और विषाद-मोहात्मक है१३२ । सांख्यों ने 33 विपर्यय से बन्ध-संसार माना है । सांख्यों के अनुसार पांच विपर्यय वही हैं, जो योगसूत्र के अनुसार क्लेश है१३४ । तत्व के अभ्यास से जब अविपर्यय हो जाता है, तब केवलज्ञान-भेदज्ञान हो जाता है१३५ । इसी से प्रकृति निवृत्त हो जाती है, और पुरुष कैवल्य लाभ करता है। बौद्ध दर्शन का प्रतीत्यसमुत्पाद प्रसिद्ध ही है, उसमें भी संसार चक्र के मूल में अविद्या ही है। उसी अविद्या के निरोध से संसार-चक्र १२५ "तेषां मोहः पापीयान नामूढस्येतरोत्पत्तः।" न्यायसू० ४.१.६ । १२६ "अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः पञ्च क्लेशाः ।" १२° "अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषाम्" २.४ । १२८ योग० २.१२ । १२९ वही २.१३ । १३° वही० २.२५, २६ । १३१ सांख्यका० ११॥ १३२ सांख्यका० १२॥ १33 सांख्यका० ४४ । १३४ वही ४७-४८ । १३५ वही ६४। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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