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________________ प्रागमोत्तर जैन-दर्शन २५५ रुक जाता है१३६ । सभी दोषों का संग्रह बौद्धों ने भी राग, द्वेष और मोह में किया है । बौद्धों ने भी राग द्वेष के मूल में मोह ही को माना है१३८ । यही अविद्या है। जैन आगमों में दोष वर्णन दो प्रकार से हुआ है। एक तो शास्त्रीय प्रकार है, जो जैन कर्म-शास्त्र की विवेचना के अनुकूल है और दूसरा प्रकार लोकादर द्वारा अन्य तैथिकों में प्रचलित ऐसे दोष-वर्णन का अनुसरण करता है। ____ कर्म शास्त्रीय परम्परा के अनुसार कषाय और योग ये ही दो बंध हेतु हैं, और उसी का विस्तार करके कभी-कभी मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये चार और कभी-कभी इनमें प्रमाद मिलाकर पांच हेतु बताए जाते हैं। कषायरहित योग बन्ध का कारण होता नहीं है, इसीलिए वस्तुतः कषाय ही बन्ध का कारण है। इसका स्पष्ट शब्दों में वाचक ने इस प्रकार निरूपण किया है ।। ____ "सकषायत्वात् जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलान् प्रादत्त ।स बन्धः ।" तत्त्वार्थ० ८.२,३। उक्त शास्त्रीय निरूपण प्रकार के अलावा तैर्थिक संमत मत को भी जैन आगमों में स्वीकृत किया है । उसके अनुसार राग, द्वेष और मोह ये तीन संसार के कारणरूप से जैन आगमों में बताए गए हैं और उनके त्याग का प्रतिपादन किया गया है१४° । जैन-संमत कषाय के चार प्रकारों को राग और द्वेष में समन्वित करके यह भी कहा गया है कि राग और दोष ये दो ही दोष हैं।४१ । दूसरे दार्शनिकों की तरह यह भी स्वीकृत किया है, कि राग और द्वेष ये भी मूल में मोह है १३६ बुद्धवचन पृ० ३० । १३७ बुद्धवचन पृ० २२ । अभिधम्म ३.५ । १3८ बुद्धवचन टि० पृ० ४ । १३९ तत्त्वार्थसूत्र (पं० सुखलाल जी) ८.१ । १४° उत्तराध्ययन २१.२६ । २३ ४३ । २८.२० । २६.७१ । ३७.२,६ । १४१ "दोहि ठाणेहि पापकम्मा बंधति । तं जहा-रागेण य दोसेण य । रागे दुविहे पण्णते तं जहा माया य लोभे य । दोसे"कोहे य माणे य ।" स्था० २. उ० २ । प्रज्ञापनापद २३ । उत्त० ३०.१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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