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________________ प्रागमोत्तर जैन-दर्शन २५३ आचार्य ने अन्य शब्दों की अपेक्षा प्रकृति शब्द को संसार-वर्णन प्रसंग में प्रयुक्त करके सांख्य और जैन दर्शन की समानता की ओर संकेत किया है। उन्होंने कहा है "चेदा दु पयडियट्ठ उप्पजदि विणस्सदि । पयडी वि चेदयट्ट उपज्जदि विणस्सदि । एवं बंधो दुण्हपि अण्णोण्णपच्चयाण हवे । अप्पणो पयडीए य संसारो तेण जायदे ॥" -समयसार ३४०-४१ सांख्यों ने पङ्ग्वंधन्याय से प्रकृति और पुरुष के संयोग से जो सर्ग माना है उसकी तुलना यहाँ करणीय है। "पुरुषस्य दर्शनार्थ कंवल्यार्थ तथा प्रधानस्य । पकग्वन्ध वदुभयोरपि संयोगस्तत्कृतः सर्गः।" -सांख्यका० २१ दोष-वर्णन : संसार-चक्र की गति रुकने से मोक्षलब्धि कैसे होती है, इसका वर्णन दार्शनिक सूत्रों में विविध रूप से आता है, किन्तु सभी का तात्पर्य एक ही है कि अविद्या-मोह की निवृत्ति से ही मोक्ष प्राप्त होता है । न्याय-सूत्र के अनुसार मिथ्याज्ञान एवं मोह ही सभी अनर्थों का मूल है। मिथ्या ज्ञान से राग और द्वेष और अन्य दोष की परम्परा चलती है। दोष से शुभ और अशुभ प्रवृत्ति होती है। शुभ से धर्म और अशुभ से अधर्म होता है और उसी के कारण जन्म होता है और जन्म से दुःख प्राप्त होता है । यही संसार है । इसके विपरीत जब तत्त्व ज्ञान अर्थात् सम्यग्ज्ञान होता है, तब मिथ्या ज्ञान-मोह का नाश होता है और उसके नाश से उत्तरोत्तर का भी निरोध हो जाता है13 और इस प्रकार संसार-चक्र रुक जाता है। न्याय-सूत्र में सभी दोषों का समावेश राग, द्वेष और मोह इन तीनों में कर दिया है१२४ और इन तीनों में भी मोह १२3 न्यायसू. १.१.२ । और न्यायभा० । १२४ न्यायसू० ४.१.३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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