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________________ २३४ आगम-युग का जैन-दर्शन आचार्य कुन्दकुन्द को परमसंग्रहावलम्बी अभेदवाद का समर्थन करना भी इष्ट था। अतएव द्रव्य, पर्याय और गुण इन तीनों की अर्थ संज्ञा के अलावा उन्होंने केवल द्रव्य की भी अर्थ संज्ञा रखी है और गुण तथा पर्याय को द्रव्य में ही समाविष्ट कर दिया है ।५३ अनेकान्तवाद : प्राचार्य ने आगमोपलब्ध अनेकान्तवाद को और स्पष्ट किया है और प्रायः उन्हीं विषयों की चर्चा की है, जो आगम काल में चर्चित थे। विशेषता यह है, कि उन्होंने अधिक भार व्यवहार और निश्चयावलम्बी पृथक्करण के ऊपर ही दिया है । उदाहरण के लिए आगम में जहाँ द्रव्य और पर्याय का भेद और अभेद माना गया है, वहाँ आचार्य स्पष्टीकरण करते हैं कि द्रव्य और पर्याय का भेद व्यवहार के आश्रय से है, जबकि निश्चय से दोनों का अभेद है ।५४ आगम में वर्णादि का सद्भाव और असद्भाव आत्मा में माना है, उसका स्पष्टीकरण करते हुए आचार्य कहते हैं, कि व्यवहार से तो ये सब आत्मा में हैं, निश्चय से नहीं हैं । आगम में शरीर और आत्मा का भेद और अभेद माना गया है। इस विषय में आचार्य ने कहा है कि देह और आत्मा का ऐक्य यह व्यवहारनय का वक्तव्य है और दोनों का भेद यह निश्चय नय का वक्तव्य है ५६ द्रव्य का स्वरूप: __ वाचक के 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत्' 'गुरणपर्यायवद्रव्यम् और . 'तद्भावाव्ययं नित्यम्' इन तीन सूत्रों (५.२६,३०,३७) का सम्मिलित अर्थ आचार्य कुन्दकुन्द के द्रव्य लक्षण में है। 'अपरिचत्तसहावेणुप्पादश्वयधुवत्तसंजुत्तं । गुणवं सपज्जायं जं तं बव्वंति पुच्चंति ॥" -प्रवचन० २.३ प्रवचन० २,१. । २.६ से। ५४ समयसार ७ इत्यादि। ५५ समयसार ६१ से। ५६ समयसार ३१, ६६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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