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मागमोत्तर जैन-दर्शन
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प्रमेय-निरूपण: - वाचक की तरह प्राचार्य कुन्दकुन्द भी तत्त्व, अर्थ, पदार्थ और तत्त्वार्थ इन शब्दों को एकार्थक मानते हैं । किन्तु वाचक ने तत्त्वों के विभाजन के अनेक प्रकारों में से सात तत्त्वों४९ को ही सम्यग्दर्शन के विषयभूत माने हैं, जबकि प्राचार्य कुन्दकुन्द ने स्वसमयप्रसिद्ध सभी विभाजन प्रकारों को एक साथ सम्यग्दर्शन के विषयरूप से बता दिया है। उनका कहना है, कि षड द्रव्य, नव पदार्थ, पंच अस्तिकाय और सात तत्त्व इनकी श्रद्धा करने से जीव सम्यग्दृष्टि होता है ।।
प्राचार्य कुन्दकुन्द ने इन सभी प्रकारों के अलावा अपनी ओर से एक विभाजन का नया प्रकार का भो प्रचलित किया । वैशेषिकोंने द्रव्य ,गुण और कर्म को ही अर्थ संज्ञा दी थी (८.२.३) । इसके स्थान में प्राचार्य ने कह दिया, कि अर्थ तो द्रव्य, गुण और पर्याय ये तीन हैं।' वाचक ने जीव आदि सातों तत्त्वों को अर्थ५२ कहा है, जबकि प्राचार्य कुन्दकुन्द ने स्वतन्त्र दृष्टि से उपर्युक्त परिवर्धन भी किया है। जैसा मैंने पहले बताया है, जैन आगमों में द्रव्य, गुण और पर्याय तो प्रसिद्ध ही थे । किन्तु आचार्य कुन्दकुन्द ही प्रथम हैं, जिन्होंने उनको वैशेषिक दर्शनप्रसिद्ध अर्थ-संज्ञा दी।
आचार्य कुन्दकुन्द का यह कार्य दार्शनिक दृष्टि से हुआ है, यह स्पष्ट है । विभाग का अर्थ ही यह, है कि जिसमें एक वर्ग के पदार्थ दूसरे वर्ग में समाविष्ट न हों तथा विभाज्य यावत् पदार्थों का किसी न किसी वर्ग में समावेश भी हो जाए । इसीलिए प्राचार्य कुन्दकुन्द ने जैनशास्त्रप्रसिद्ध अन्य विभाग प्रकारों के अलावा इस नये प्रकार से भी तात्त्विक विवेचना करना उचित समझा है ।
४८ पंचास्तिकाय गा० ११२, ११६ । नियमसार गा० १६ । दर्शनप्राभृत गा० १६ ।
४९ तत्त्वार्थ सूत्र १.४ ।
५० "छद्दव्व एव पयत्या पंचत्थी, सत्त तच्च णिहिट्ठा । सद्दहइ ताण रूवं सो सद्दिट्ठी मुणेयम्वो ॥" दर्शनप्रा० १६ ।
५१ प्रवचनसार १.८७। ५२ "तत्त्वानि जीवादीनि वक्ष्यन्ते । त एव चार्थाः ।" तत्त्वार्थभा, १.२ ।
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